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________________ ४] प्रबन्धचिन्तामणि [ प्रथम प्रकाश विक्रम के साथ लौट आया । फिर उसके शोकरूपी शंकुकी शंकाको दूर करनेके लिये, भट्ट मात्र ने खानका वृत्तान्त बताते हुए, तत्काल ही उसकी माताका कुशल समाचार कहा । विक्रम ने इसे भट्ट मात्र की सहज लोलुपता समझकर उसके हाथसे रत्न छीन लिया, और फिर खानके पास पहुँचा और बोला २. गरीबोंके दरिद्रतारूप घावको भरनेवाले इस रोहण गिरि को धिक्कार है जो [ इस प्रकार ] अर्थिजनों [ याचकों ] से ' हा दैव !' ऐसा कहलाकर फिर रत्न देता है । यह कह कर उसने सब लोगों के सामने उस रत्नको वहीं फेंक दिया । फिर देशान्तर भ्रमण करता हुआ अवन्ती की सीमामें पहुँचा। वहां पर, नगारेकी मनोरम ध्वनि सुनकर और उसके कारणका वृत्तान्त जानकर उसका स्पर्श किया । फिर उस भट्ट मात्र के साथ वह राजमन्दिर में आया । [ ज्योतिषीसे ] बिना पूछे हुए उसी मुहूर्त में दिनभर के लिये मंत्रियोंने उसे राज - पदपर अभिषिक्त किया । उसने अपनी दूरदर्शिता से समझ लिया कि इस राज्यपर कोई प्रबल राक्षस या देवता क्रुद्ध होकर प्रतिदिन एक एक राजाका संहार करता है और राजाके अभाव में देशका विनाश करता है । इसलिये भक्ति या शक्तिसे उसका अनुनय करना उचित है । यह सोच, नाना प्रकार के भक्ष्य - भोज्य आदि बनवाकर, सायंकाल चंद्रशाला (राजमहलका ऊपरी हिस्सा ) में सब कुछ सजा कर रखा । रातकी आरती हो जानेके बाद, अंगरक्षकोंसे भारशृंखलामें लटकते हुए पलंगपर अपने पट्ट- दुकूल आदिसे आच्छादित तकियाको रखवाकर, स्वयं प्रदीपच्छाया में - अर्थात् ऐसी जगहपर जहाँ प्रदीपका प्रकाश नहीं पड़ता था,—जाकर बैठ गया । हाथोंमें तलवार धारण किये हुए, और धैर्यमें जिसने तीनों लोकको जीत लिया वैसा वह चारों ओर [ तीक्ष्ण दृष्टिसे ] देखता रहा । एकाएक घोर अर्द्धरात्रिको खिड़क के रास्ते पहले धुआँ उठा, फिर ज्वाला निकली और बादको साक्षात् प्रेतकी प्रतिमूर्तिके समान एक विकराल बेतालको उसने आते देखा । भूखसे उस बेतालका पेट फक हो रहा था, [ इसलिये पहले ] उसने खूब इच्छापूर्वक उन भोज्य द्रव्यों को खाया, फिर गंध द्रव्योंको शरीर में लगाया और पान खाकर सन्तुष्ट होकर फिर वहीं पलंगपर वह बैठ गया और विक्रमादित्य से बोला- ' अरे मनुष्य ! मेरा नाम अग्नि बेताल है, देवराज (इन्द्र) प्रतीहार रूपसे मैं प्रसिद्ध हूं । मैं प्रतिदिन एक एक राजाको मारता हूं। पर [ आज ] तुम्हारी इस भक्तिसे संतुष्ट होकर मैंने तुम्हें अभयदानपूर्वक यह राज्य दे दिया है । पर इतना भक्ष्यभोज्य मुझे सदैव देना । इस प्रकार दोनोंमें होनेके बाद, कुछ काल बीतनेपर, विक्रम राजा ने [ उससे ] अपनी आयु पूछी । तब वह यह कहकर चला गया कि - ' मैं तो नहीं जानता पर स्वामी ( इन्द्र ) से जानकर तुम्हें बताऊँगा ।' फिर दूसरी रातको वह आया और विक्रम से बोला कि -' इन्द्रने तुम्हारी आयु सौ सालकी बताई है । ' राजाने अपने मित्रधर्मका अधिक आरोप करके इस प्रकार अनुरोध किया कि - 'इन्द्रसे मेरी आयु सौ वर्ष से एक वर्ष अधिक या कम करा दो ! ' उसने यह अंगीकार किया और फिर दूसरे दिन आकर यह बात कही - ' महेन्द्र के किये भी [ तुम्हारी आयु ] निन्यानबे या एक सौ एक वर्ष नहीं होगी।' इस निर्णयके जान लेनेपर, राजा दूसरे दिन उसके लिये भक्ष्यभोज्य न बनवाकरके, लड़ाईके लिये सज्जित होकर रात में तैयार रहा । वह वेताल भी यथारीति आकर उन भक्ष्यभोज्योंको न पाकर क्रुद्ध हुआ और उसने राजा ऊपर आक्रमण किया । बड़ी देरतक उन दोनोंमें युद्ध होता १ प्राचीन काल में यह प्रथा थी कि राज्य की ओरसे किसी साहस या दुष्कर कार्यके करने करवाने की घोषणा जब कराई जाती थी, तब एक विशिष्ट राजपुरुष, कुछ अन्य राजकर्मचारियों सैनिकों आदिको साथ लेकर, नगरके प्रधान प्रधान राजमार्गों से ढोल या नगारा बजवाता हुआ घूमता फिरता और मुख्य मुख्य स्थानोंपर खड़ा होकर जो कार्य करना करवाना हो उसकी उद्घोषणा करता । जिस मनुष्यको वह कार्य करना अभीष्ट होता वह उस घोषणा के बाद उस ढोल या नगारेको अपना हाथ लगाता, जिससे वे राजकर्मचारी यह समझ लेते कि इस मनुष्यको यह कार्य करना सम्मत है । फिर उस मनुष्यको वे सम्मान के साथ प्रधान या राजा के पास ले जाते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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