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प्रकरण १]
विक्रमार्कराजाका प्रबन्ध १. विक्रमार्क राजाका प्रबन्ध ।
१. इस पृथ्वीतल पर विक्र मा दित्य [ कालक्रमसे ] अन्तिम राजा होते हुए भी, अपने शौर्य
औदार्य आदि गुणोंसे वह प्रथम और अद्वितीय राजा हुआ' । श्रोताओंके कानोंमें अमृतकासा आसिंचन करनेवाला उस राजाका इतिवृत्त बहुत कुछ विस्तृत है । हम यहां पर, ग्रंथकी आदिमें
उसीका संक्षेपमें कुछ वर्णन करते हैं * ।
१) वह इस प्रकार है-अवन्ति देश के सुप्रतिष्ठान नामक नगरमें असम साहसका एक मात्र निधि; दिव्य लक्षणों ( चिह्नों ) से लक्षित; सत्कर्म, पराक्रम इत्यादि गुणोंसे भरपूर ऐसा एक विक्रम नामक राजपूत ( राजपुत्र ) था । आजन्म दरिद्रतासे तंग होता हुआ भी वह अति नीति-परायण था; सैंकड़ों उपाय करके भी जब धन नहीं प्राप्त कर सका तो एक बार भट्ट मात्र नामक मित्र के साथ रोह ण पर्वत को चला । उसके निकटवर्ती प्रव र नामक नगरमें [ एक ] कुम्हारके घर विश्राम करके प्रातःकाल उस कुम्हारसे भट्ट मात्र ने कुदाल मांगा । उसने कहा-इस जगह खानके भीतर जाकर प्रातःकाल पुण्यात्मक नामका श्रवण करके, ललाटको हथेलीसे स्पर्श कर ' हा दैव !' ऐसा कहकर चोट मारनेसे, दुर्भागी मनुष्यको भी अपनी प्राप्तिके अनुसार रत्न मिलते हैं । उस भट्ट मात्र ने कुम्हारसे इस वृत्तान्तको भली भाँति सुन लिया पर विक्रम से इस प्रकारकी दीनता करानेमें वह असमर्थ था । उन साधनोंको साथ लेकर विक्रम जब उस स्थानमें कुदालका प्रहार करनेको उद्यत हुआ तो उस उसम उसने [ अकस्मात् ] विक्रमसे इस प्रकार कहा कि-' अवन्ती से आए हुए किसी वैदेशिकसे घरका कुशल समाचार पूछने पर उसने आपकी माताका मरण बताया है !' इस तप्त वज्र-शूची ( हीरा छेदनेकी सुई- हीराकणी ) के समान वचनको सुनकर विक्र म ने हथेलीसे माथा ठोंककर 'हा दैव !' ऐसा कहा और कुदालको हाथसे फेंक दिया । उस कुदालके अग्रभागसे फटी हुई जमीनमेंसे सवा लाख मूल्यका चमकता हुआ रत्न ( हीरा ) प्रादुर्भूत हुआ । भट्ट मात्र उसे लेकर
१ मध्यकालीन प्रबन्धकारोंकी यह मान्यता थी कि विक्रमादित्यके बाद उसके जैसा पराक्रमी, शूर, वीर, उदार चेता और कोई राजा नहीं हुआ। उसके पहलेके युगमें यद्यपि पुराणप्रसिद्ध अनेक राजा हुए जो इन गुणोंसे यथेष्ट अलंकृत थे, तथापि वे भी विक्रमके जैसे संपूर्ण आदर्श नृपति नहीं थे । इसलिये इन गुणोंकी दृष्टिसे विक्रम उन राजाओंमें भी सर्व प्रथम स्थान प्राप्त करता है और इसीलिये इस पद्यमें, ग्रंथकारने उसको कालक्रमसे अन्तिम होनेपर भी गुणक्रममें वह सर्व प्रथम था, ऐसा कहा है। प्रबन्धचिन्तामणिका इंग्रेजी भाषामें जो अनुवाद टॉनी नामक इंग्रेज विद्वान्ने किया है, उसमें उसने अन्त्य इस शब्दका अर्थ अन्त्यज-हीन जातीय ( of Lowest rank) ऐसा किया है, लेकिन वह भ्रमात्मक है । विक्रम हीन जातीय था ऐसा कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। प्रबन्धोंमें विक्रमका कहीं तो राजपूत जातिके परमार वंश में उत्पन्न होना लिखा है और कहीं हूण वंश में; ये दोनों ही प्रसिद्ध राजवंश है । इस विषयकी विशेष चर्चा हम अगले भागमें करेंगे।
* इस प्रबन्धचिन्तामणिकी रचनाके पूर्व, विक्रमविषयक कई चरित्र और प्रबन्ध बने हुए विद्यमान थे। ये चरित्र-प्रबन्ध बहुत कुछ विस्तृत और विविध वर्णनवाले थे। उनमेंसे कुछ थोडेसे वर्णन, संक्षेप करके, मेरुतुंगसूरिने यहांपर ग्रथित किये हैं। विक्रम विषयक इस विविध साहित्यका विशेष परिचय हम यथास्थान अगले ग्रन्थमें लिखेंगे।
२ वर्तमान मालवेका प्राचीन नाम अवन्ती था ।
३ मा ल वा याने अवन्तीमें सु प्रतिष्ठान नामक कोई नगरका उल्लेख कहीं नहीं मिलता । अवन्तीकी राजधानी प्राचीन काल ही से उजयिनी प्रख्यात है और विक्रमकी राजधानी यही उजयिनी थी। इसलिये संभव है कि ग्रंथकारने इसी उजयिनी को सुप्रतिष्ठा न-जिसका प्रतिष्ठान स्थापन खूब दृढ़ है-इस विशेषणसे उल्लिखित किया हो। और भी उपनाम थे, इसलिये यह भी संभव है कि यह सु प्रतिष्ठान भी उसका एक उपनाम हो । दक्षिण अर्थात् महाराष्ट्र की पुरानी राजधानी प्रतिष्ठान नगरी थी-जो वर्तमानमें निजाम राज्यमें गोदावरी के काँठेपर पैठण नामक कसबसे प्रसिद्ध है
उसकी प्रतिस्पर्धा में भी शायद उजयिनीको सुप्रतिष्ठान नाम प्रदान किया गया हो। Jain Education International
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