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प्रबन्धचिन्तामणि
[ प्रथम प्रकाश विविध प्रकारके ग्रन्थों और प्रबन्धोंको छोड़ कर बुद्धिमानोंको सुखसे जिनका बोध हो सके इसलिये गयरचना द्वारा ही मैं मे रु तुंग इस ग्रन्थकी रचना करना चाहता हूं ॥ ३॥
रत्नाकर ( समुद्र ) समान सद्गुरु सम्प्रदायसे, जब मेरी इस प्रबंधरूप चिन्तामणि (रत्न) के उद्धार करनेकी इच्छा हुई तो श्रीधर्मदे व ने सैंकडो बार इतिहासकी बातें कह कहकर मानों मेरी सहायता की ॥४॥
जिस प्रकार म हा भा र त ग्रन्थका प्रथम आदर्श ( पहली नकल ) गणेश (गजाननने ) तैयार किया, उसी प्रकार इस प्रबन्धचिन्तामणि नामक नये ग्रंथका प्रथम आदर्श गुण चन्द्र नामक गणेश ( गच्छपति ) ने सुन्दर रितिसे तैयार किया" ॥५॥
वारंवार सुनी जानेके कारण पुरानी कथायें बुद्धिमानोंके मनको वैसा प्रसन्न नहीं कर पातीं। इस लिये मैं निकटवर्ती सत्पुरुषोंके वृत्तान्तोंसे [ संकलित ऐसे ] इस प्रबंधचिन्तामणि ग्रन्थकी रचना कर रहा हूं ॥६॥
____ यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि [ संकलना ] से कहे गये प्रबंध [ कुछ कुछ ] भिन्न भिन्न भावों वाले अवश्य होते हैं; तथापि इस ग्रंथकी रचना सुसम्प्रदाय ( योग्य परंपरा) के आधारपर की गई है। इसलिये चतुर जनोंको [ इसके विषयमें ] वैसी चर्चा न करनी चाहिये ॥ ७॥
३ मे रुतुंग सू रिने इस ग्रंथकी रचना की उसके पूर्व, कुछ गद्य और कुछ पद्यमें, कुछ प्राकृत और कुछ संस्कृतमें, कुछ पुरातन अपभ्रंश और कुछ अर्वाचीन देश्य भाषामें, इस प्रकारके कई छोटे बड़े प्रबन्धात्मक ग्रन्थ विद्यमान थे। उन अन्योंमेंसे अपनी मनोरुचिके अनुसार कितने एक विषय चुनकर मेरुतुंगने सरल संस्कृत गद्य रचना द्वारा इस ग्रन्थका संकलन किया ।
४ ग्रन्थकार मेरुतुंगसूरिके धर्म देव नामक कोई वृद्ध गुरुभ्राता अथवा गुरुजन थे जिन्होंने समय समय पर इतिहासकी सैंकडों पुरानी बातें सुना सुनाकर इस ग्रन्थकी रचना सामग्रीमें यथेष्ट सहायता दी। इस लिये ग्रन्थकारने अपने गुरुके बाद उनका भी सम्मानपूर्वक इस श्लोक द्वारा स्मरण और उपकृत भाव प्रदर्शित किया है।
५ जैन ग्रन्थों में यति-मुनियोंके समुदायको गण नामसे भी उल्लिखित किया जाता है। गणका नायक जो सूरिआचार्य होता है उसे गणेश-गणपति-गणनायक-आदि शब्दोंसे सम्बोधित किया जाता है। प्रबन्धचिन्तामणिका प्रथम तैयार करनेवाले गुण चन्द्र नामक गणी ये जो शायद मेरुतुंगसूरिके प्रधान शिष्य हों और उनके बाद उनके पट्टधर गणनायक बने हो । गणेश शब्दसे, ग्रंथकारने पुराण प्रसिद्ध देव गणपति (गजान न-विनायक ) जिन्होंने वेद व्यास कथित महाभारतकी प्रथम नकल की, उसके साथ यहां पर श्लेषार्थ कर अर्थ घटना बताई है।
६ पुराने जमानेमें व्याख्यानकार और कथाकार प्रायः सदा उन्हीं कथा-वार्ताओंको सुनाया करते थे जो महाभारत और रामायण आदि पुराण ग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं । एककी एकही कथा वारंवार सुनकर विज्ञ मनुष्योंके मनको विशेष आनन्द नहीं आता यह सर्वानुभव सिद्ध बात है। मेरुतुंगसूरिने इस बातका विचार कर, कथाकारोंको, लोगोंका मनोरंजन करनेके लिए कुछ नई सामग्री प्राप्त हो इस उद्देश्यसे, कितने एक इतिहास प्रसिद्ध और निकट समयवर्ती श्रेष्ठ पुरुषोंके ऐतिहासिक वृत्तान्तोंसे अलंकृत ऐसे इस प्रबन्धचिन्तामणि नामक ग्रन्थकी रचना की। ग्रन्थकारका यह कथन खास ध्यान देने योग्य है।
७ मेरुतुंगसूरिने इस ग्रन्थकी संकलना करने में कुछ तो पुराने प्रबन्ध-ग्रन्थोंकी सहायता ली और कुछ परंपरासे चली आती हुई मौखिक बातोंका आधार लिया । इस प्रकार परंपरासे सुनी हुई बातोंका परस्पर मिलान करने में विद्वानोंको अवश्य ही उनमें कुछ न कुछ भिन्नभाव मालूम पडता रहता है। मेरुतुंगसूरिको भी अपनी इस रचनामें और दूसरी अन्यकृत रचनामें कहीं कहीं ऐसा भित्रभाव मालूम हुआ है। इस भिन्नभावका निराकरण करनेका या खुलासा करनेका उनके पास न तो कोई साधन था और न कोई उनको उसकी आवश्यकता थी। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहना पर्याप्त समझा कि- हमने जो बातें इस ग्रन्थमें संकलित की हैं वे एक सुसंप्रदाय द्वारा प्राप्त की हुई हैं । इस लिये इनके तथ्यातथ्यके बारेमें चतुर मनुष्योंको चर्चा करनेसे कोई लाभ नहीं । प्रबन्धचिन्तामाणकी कुछ बातें ऐतिहासिक दृष्टिसे सर्वथा भ्रान्त भी मालूम होती हैं लेकिन मेरुतुंग सूरि उनके लिये निष्पक्ष और
निराग्रह है-यह बात इस श्लोकगत कथनसे सूचित होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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