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श्रीमेरुतुङ्गाचार्यविरचित
प्रबन्धचिन्तामणि
॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ श्रीनाभिभूर्जिनः पातु परमेष्ठी भवान्तकृत् । श्रीभारत्योश्चतुरमुचितं यच्चतुर्मुखी ॥१॥ नृणामुपलतुल्यानां यस्य द्रावकरः करः। ध्यायामि तं कलावन्तं गुरुं चन्द्रप्रभ प्रभुम् ॥ २॥ गुम्फान् विधूय विविधान् सुखेबाधाय धीमताम् । श्रीमेरुतुङ्गस्तद्गद्यबन्धाद् ग्रन्थं तनोत्यमुम् ॥३॥ रत्नाकरात् सद्गुरुसम्पदायात् प्रबन्धचिन्तामणिमुद्दिधीर्षो ।
श्रीधर्मदेवः शतधोदितेतिवृत्तैश्च साहाय्यमिव व्यधत्त ॥४॥ श्रीगुणचन्द्रगणेशः प्रबन्धचिन्तामणिं नवं ग्रन्थम् ।
भारतमिवाभिरामं प्रथमादर्शेत्र दर्शितवान् ॥ ५॥ भृशं श्रुतत्वान्न कथाः पुराणाः प्रीणन्ति चेतांसि तथा बुधानाम् ।
वृत्तैस्तदासनसतां प्रबन्धचिन्तामणिग्रन्थमहं तनोमि ॥ ६॥ बुधैः प्रबन्धाः स्वधियोच्यमाना भवन्त्यवश्यं यदि भिन्नभावाः।
ग्रन्थे तथाप्यत्र सुसम्प्रदायाद् दृब्धे न चर्चा चतुरैर्विधेया ॥७॥
॥ ॐ सर्वज्ञको नमस्कार हो ॥ जिनकी चतुर्मुखी ( चार मुख ) लक्ष्मी और सरस्वतीका उचित द्वार है, और जो भवका अन्त करनेवाले हैं ऐसे श्री ना भिभू, परमेष्ठी जिन ( ऋषभ नाथ ) रक्षा करें ॥१॥
उस कलावान् प्रभु चन्द्र प्रभ नामक गुरुका मैं ध्यान करता हूं जिनका कर (-हाथ, किरण) पत्थरके समान मनुष्योंको भी द्रवित करनेवाला है ॥२॥
इस श्लोकमें ग्रन्थकारने ब्रह्मा और जिनदेव ऋषभ नाथ की एक साथ स्तुति की है। ब्रह्माके चार मुख होनेसे थे चतुर्मुख के नामसे प्रसिद्ध है । जैन शास्त्रोंमें वर्णन है कि भगवान् ऋषभदेव जब धर्मोपदेश देते थे तब वे भी श्रोताओंको चार मुखवाले दिखाई देते थे । इस लिये जिन भगवानको भी चतुर्मुख का विशेषण दिया जाता है। ब्रह्मा भी परमेष्ठी पदसे प्रसिद्ध हैं और जिन भगवान् भी परमेष्ठी कहलाते हैं । ब्रह्मा विष्णुके नाभिकमलसे पैदा हुए ऐसी पुराणोंमें प्रसिद्धि है इस लिये वे नाभिभू कहे जाते हैं और जिनदेव ऋषभनाथके पिताका नाम ना भिराज था इस लिये वे भी नाभि भू कहे जाते हैं।
२ इस श्लोकमें ग्रन्थकारने अपने गुरुको नमस्कार किया है जिनका नाम चन्द्र प्रभ था । चन्द्रप्रभ शब्दकारलेषार्थ करते हुए गुरुकी तुलना चन्द्रमाके साथ की है। चन्द्रमा अपनी १६ कलाओंके कारण कलावन्त कहलाता है, ग्रन्थकारके गुरु भी अनेक विद्या-कलाओंसे अलंकृत होनेके कारण कलावन्त थे । चन्द्रमाके कर याने किरण चन्द्रकान्त मणिको-जो एक प्रकारका पत्थर ही है-द्रवित (जलबिन्दु युक्त) करते हैं; वैसे ही चन्द्रप्रभ गुरुके कर याने हाथ यदि पत्थरतुल्य मनुष्यके मस्तिष्क ऊपर भी पडते है तो उसको भी वे द्रवित ( आर्द्र,-कोमलचित्त ) बनाते हैं।
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