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________________ प्रकरण २ ] विक्रमार्कराजाका प्रबन्ध रहा। बादको पुण्यबलके सहायसे राजाने उसे पृथ्वी तलपर पटक दिया, और उसकी छातीपर पैर रखकर कहा कि-' इष्ट देवताका स्मरण करो !' तब बह बोला कि- मैं तुम्हारे अद्भुत साहससे संतुष्ट हूँ। तुम जो करनेको कहो उस आदेशका पालन करनेवाला मैं अग्नि नामक बेताल तुम्हें सिद्ध हुआ ।' ऐसा होनेपर उसका राज्य निष्कंटक हुआ । इसी तरह अपने पराक्रमसे दिग्मण्डलको आक्रान्त करनेवाले उस राजाने छानबे प्रतिद्वन्द्वी राजाओंके राज्यको अपने अधिकारमें किया। ३. जंगली हाथी, तुम्हारे शत्रुओंके [ उज्जड पड़े हुए ] घरोंकी स्फटिक निर्मित दीवालपर दूरसे अपनी परछाई देखकर, उसे प्रतिद्वंद्वी हाथी समझकर, क्रोधसे आघात करता है । [ उस आघातके कारण ] फिर जब उसका दाँत टूट जाता है तो उसे ही हथिनी समझकर धीरे धीरे साहस' के साथ उसका स्पर्श करता है। इस प्रकार, का लि दासा दि महाकवियों द्वारा की हुई स्तुति ( प्रशंसा ) से अलंकृत होते हुए उसने चिरकाल तक विशाल साम्राज्यका उपभोग किया । अब यहाँपर प्रसंगसे महाकवि कालिदास की उत्पत्ति संक्षेपमें कहते हैं २) अवन्ती नामक नगरीमें राजा विक्र मा दित्य की लड़की प्रियंगु मंजरी थी। वह अध्ययनके लिये वररुचि नामक पंडितको समर्पण की गई । बुद्धिमती होनेके कारण सभी शास्त्रोंको उसने उस पंडितसे कुछ ही दिनोंमें पढ़ लिया । वह पूर्ण यौवनावस्था प्राप्त कर चुकी थी, और नित्य अपने पिताकी सेवा करती थी। किसी समय, वसन्त कालमें दोपहरको-जब कि सूर्य सिरपर आगया था, वह खिड़कीके सामने एक सुखासन ( सोफा ) पर बैठी हुई थी। इसी समय उपाध्याय ( वररुचि ) रास्तेमें चलते हुए खिड़कीकी छायामें कुछ विश्राम लेने खडे रहे । कुमारीने उन्हें देखा और खूब पके हुए आमके फलोंको दिखाया । उसने समझा कि वे ( उपाध्याय ) उन फलोंके लोलुप हैं, और बोली-' आपको ये फल ठंडे रुचेंगे या गरम !' उसकी इस बातकी चातुरीको न समझते हुए उस ( उपाध्याय ) ने कहा कि-'गरम ही चाहते हैं' इस प्रकार कह कर, उस उपाध्यायने अपना वस्त्र फैलाया जिसमें उसने ऊपरसे वे फल नीचे फेंके । लेकिन फल पृथ्वीपर गिर पडे और उससे उनमें धूल लग गई । व र रु चि हाथ में लेकर मुँहसे इंक फूंक कर उस धूलको झाड़ने लगा । राजकन्याने उपहासके साथ कहा-'क्या ये बहुत गरम हैं कि जिससे मुंहसे फूंक कर ठंडा कर रहे हो ?' उसकी इस बातसे चिढ़कर उस ब्राह्मणने कहा-'ऐ अपनेको चतुर समझनेवाली अभिमानिनि ! तूं गुरुके साथ ऐसा मज़ाक कर रही है; जा तुझको पशुपाल पति मिलो' । इस प्रकार उनका शाप सुनकर उसने कहा'आप तो त्रैविध हैं, लेकिन मैं तो, आपसे अधिक विद्यावान् होनेके कारण जो आदमी आपका भी गुरु होगा, उसीसे विवाह करूंगी।' उसने इस प्रकार प्रतिज्ञा की । इसके बाद विक्रमादित्य जब कन्याके लिये उचित श्रेष्ठ वर पाने की चिन्तारूपी समुद्रमें डूब रहे थे, तो वह पंडित जिसे राजाने अभिलषित वर की खोज करनेका आग्रहपूर्वक आदेश कर रखा था, एक बार एक जंगल में घूमता हुआ पिपासासे व्याकुल हुआ । जब १ मूलमें यहांपर 'साहसाङ्कः' ऐसा सविभक्तिक पाठ है इसलिये इसे हाथीका विशेषण मान कर यह अर्थ किया गया है। प्रत्यंतरोंमें 'साहसाङ्क' ऐसा निर्विभक्तिक पाठ भी मिलता है जो अर्थदृष्टिसे संबोधनात्मक हो सकता है। उस अर्थमें यह 'हे साइसाङ्क!' ऐसा विक्रमका विशेषण हो सकता है । विक्रम का उपनाम सा ह साङ्क था, इसके यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं। २ यह जो राजाकी स्तुतिका पद्य उद्धृत किया गया है वह महाकवि का लि दास का बनाया हुआ है, ऐसा मेरुतुंगका मंतव्य मालूम देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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