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प्रास्ताविक वक्तव्य
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कर लेने में कोई संकोच नहीं किया । भोज-भीमप्रबन्धकी बहुतसी स्मृतियाँ इसी दृष्टिसे संगृहीत की गई हैं । सिद्धराज के प्रबन्धकी भी बहुतसी बातें इसी आशय से लिखी गई हैं ।
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९. मेरुतुङ्ग सूरिकी इतिहास-प्रियता ।
मालूम देता है कि मेरुतुङ्ग सूरिको ऐतिहासिक बातोंमें कुछ अधिक रस था और ऐतिहासिक तथ्यपर पक्षपात था । इसलिये उन्होंने सिद्धराज और कुमारपालके जीवन विषय की वैसी भी कुछ तथ्यभूत बातें उल्लिखित कर दीं हैं जिससे उन व्यक्तियोंके, कुछ चरित्र - दुर्बलता और स्वभाव-कृपणता आदि दोषोंकी भी, हमको झांकी हो जाती है | हेमचन्द्र सूरि आदि विद्वानोंने अपनी रचनाओं में ऐसे दोषोंका बिल्कुल भी आभास नहीं आने दिया है ।
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इस विषय में, मेरुतुङ्ग सूरिने सबसे अधिक महत्त्वकी जो सत्य ऐतिहासिक बात लिख डाली है वह है मंत्रीवर वस्तुपाल - तेजपाल की माता कुमारदेवीके पुनर्लनकी । तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक नीतिकी भावनाकी दृष्टिसे कुमारदेवीका वह पुनर्लग्न अवश्य निन्दनीय और हीन कार्य समझा जाता था । वैसे कार्यको समाज बडी हलकी दृष्टिसे देखता था और उस कार्यके करनेवाली व्यक्तिको बडे कठोर भावसे समाज से बहिष्कृत और तिरस्कृत किये करता था । यह तो उस एक अद्वितीय भाग्यवती कुमारदेवीका लोकोत्तर पुण्यकर्म ही था, जिसके प्रभाव से उसकी कुक्षी में ऐसे प्रभावशाली पुत्ररत्न पैदा हुए जिनकी समता रखनेवाले पुरुष, सारे संसार के इतिहास में भी इने-गिने ही दिखाई देंगे। इन पुत्र - पुङ्गवों के प्रतापके कारण कुमारदेवी तत्कालीन समाजमें बडी भारी प्रतिष्ठा की पुण्यभूमि बन सकी और सारे देशके जनोंसे बडी श्रद्धा के साथ पूजी और प्रशंसी गई । बडे-से-बडे धर्माचार्यौने, बडे-से-बड़े कवियोंने, बडे-से-बडे राष्ट्रपुरुषोंने उसकी प्रतिमाकी पूजा की और उसके नामकी स्तुतियाँ गाईं । पर उसके जीवनका वह महत् प्रेमकार्य, जिसके वश हो कर उसने, अणहिलपुरके एक बडे खानदानके प्राग्वाट कुटुंब के पराक्रमी युवक ठक्कुर आसराजके साथ पुनर्लग्न किया था, उसकी स्मृतिका किंचित् आभास भी उन समकालीन कवियों और ग्रन्थकरोंने अपनी कृतियोंमें न आने दिया । क्यों कि वह कार्य समाज और धर्मको नापसन्द था । उसकी स्मृतिको जीवित रखना अप्रिय था । श्रद्धेय और पूजनीय माता कुमारदेवीके पुण्य जीवनकी उस मानी गई कृष्णकलाका सूचन करना उन कवियोंके लिये बडा पातक कार्य था । महामात्य वस्तुपाल - तेजपाल जैसे जगत् श्रेष्ठ, पुण्यप्रभावक और धर्मावतार नरशिरोमणि विधवा-विवाहसे प्रसूत पुत्ररत्न थे, इस विचारको स्मृतिमें लाना भी उन ग्रन्थकारोंके लिये, शायद बडा दुःखद और दुर्विचारक कर्तव्य था । इसलिये उन्होंने अपनी कृतियों में इसकी कहीं भी स्मृति नहीं होने दी। उन्हींका अनुगमन करनेवाले, वस्तुपाल-तेजपाल के अन्यान्य पिछले प्रसिद्ध चरित्रकारोंने भी उस बातका कहीं सूचन नहीं होने दिया । परंतु मेरुतुङ्गने अपने ग्रन्थमें इस बातका बहुत ही संक्षेप में पर बडे स्पष्ट रूपसे उल्लेख कर दिया। ऐसा ही एक दूसरा स्पष्ट उल्लेख उन्होंने राणा वीरधवलकी माता के विषय में भी किया है, जो भी इसी तरहका एक सामाजिक अपवादका ज्ञापक हो कर भी ऐतिहासिक तथ्य था । इन उल्लेखोंसे मेरुतुङ्ग सूरिकी सच्ची इतिहास-प्रियताका हमको अच्छा आभास हो जाता है ।
बाकी उस समय के ग्रन्थकारोंके विषय में, इससे अधिक विशुद्ध इतिहास - दृष्टिकी अपेक्षाकी कल्पना करना और उनमें धार्मिक या सांप्रदायिक भावनाके पोषक विचारोंका दोषारोप कर, उनके अबाधित कथनों को भी उपेक्षाकी दृष्टिसे देखना, एक प्रकारकी निजकी ऐतिहासिक दृष्टिकी विपर्यासताका बोध कराना है ।
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