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प्रबन्धचिन्तामणि वाली किसी उक्तिके न आने देनेकी सावचेतीका रखना, उसका कर्तव्य है । ब्राह्मण और शैव ग्रन्थकारोंने भी वैसा ही किया है। मुसलमान और ईसाई इतिहास-लेखकोंने भी वैसा ही किया है - और अब भी सब वैसा ही करते रहते हैं । इसलिये इसमें जैनधर्मके महत्त्वके प्रतिपादनका होना कोई खास दूषण नहीं है । रही बात अतिशयोक्तिकी-सो विशुद्ध इतिहासकी दृष्टिसे किसी भी प्रकारकी अतिशयोक्ति अवश्य ही आलोचनाय है और उसकी प्रामाणिकता विचारणीय है । पर जैसा कि हमने पहले ही सूचित कर दिया है, यह ग्रन्थ कोई विशुद्ध इतिहास ग्रन्थ नहीं है । यह तो कुछ पुरातन प्रकीर्ण पोथियोंमें यत्र-तत्र लिखित और कुछ कुछ वृद्ध जनोंके मुखसे यथा-तथा श्रुत ऐसी इतिहासविषयक कथा-वार्ताओंका एकत्र संकलनवाला एक संग्रह मात्र है। अतः इसमेंकी कुछ उक्तियाँ अथवा घटनाएँ, विशुद्ध इतिहासकी दृष्टिसे, यदि भ्रान्तिपूर्ण, अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा निर्मूलप्राय भी सिद्ध हों तो उसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । और खुद ग्रन्थकारको भी इस विषयमें कुछ आशंका हुई है, कि उनके इस संकलनमें, विद्वानोंको कुछ बातें संदिग्ध या भिन्नभाववालीं मालूम दें । इसलिये उन्होंने ग्रन्थारंभमें यह बात भी इस तरह कह दी है कि-" यद्यपि विद्वानों द्वारा अपनी बुद्धि [ संकलना ] से कहे गये प्रबन्ध [ कुछ कुछ ] भिन्न भिन्न भावोंवाले अवश्य होते हैं, तथापि इस ग्रन्थकी रचना सुसंप्रदाय ( योग्य परंपरा ) के आधार पर की गई है। इसलिये चतुर जनोंको [ इसके विषयमें ] वैसी चर्चा न करनी चाहिए।" इस कथनको स्पष्ट करनेके इरादेसे इसके नीचे जो टिप्पणी हमने दी है उसमें लिखा है कि - “ मेरुतुङ्ग सूरिने इस ग्रन्थकी संकलना करनेमें कुछ तो पुराने प्रबन्ध-ग्रन्थोंकी सहायता ली और कुछ परंपरासे चली आती हुई मौखिक बातोंका आधार लिया । इस प्रकार परंपरासे सुनी हुई बातोंका परस्पर मिलान करने में विद्वानोंको अवश्य ही उनमें कुछ-न-कुछ भिन्न भाव मालूम पडता रहता है । मेरुतुङ्ग सूरिको भी अपनी इस रचनामें कहीं कहीं ऐसा भिन्न भाव मालूम हुआ है । इस भिन्न भावके निराकरण करनेका या खुलासा करनेका उनके पास न तो कोई साधन था और न कोई उनको उसकी वैसी आवश्यकता थी । उन्होंने सिर्फ इतना ही कहना पर्याप्त समझा कि हमने जो बातें इस ग्रन्थमें संकलित की हैं वे एक सुसंप्रदाय द्वारा प्राप्त की हुई हैं। इसलिये इनके तथ्यातथ्यके बारेमें चतुर मनुष्योंको चर्चा करनेसे कोई लाभ नहीं। प्रबन्धचिन्तामणिकी कुछ बातें ऐतिहासिक दृष्टिसे सर्वथा भ्रान्त भी मालूम होती हैं लेकिन मेरुतुङ्ग नारी उनके लिये निष्पक्ष और निराग्रह हैं।"
यद्यपि यह बात ठीक है कि मेरुतुङ्ग सूरिका मुख्य लक्ष्य जैन धर्मके महत्त्वकी ओर रहा है; तथापि उन्होंने अन्य धर्मोकी निन्दा करने की दृष्टि से या अन्य धार्मिक जनोंकी हीनता बतानेकी भावनासे इसमें कुछ भी नहीं लिखा है । बल्कि प्रसङ्गोपात्त अन्य-धर्म-विषयक कुछ महत्त्वकी बातें भी उन्होंने उसी आदरकी दृष्टिसे लिखी हैं, जैसी अपने धर्मकी लिखीं हैं। उदाहरणके तौरपर, मूलराजके प्रबन्धमें जो शिवपूजाका प्रभाव और
शैवाचार्य कंथडी नामक तपस्वीके तपकी महिमाका वर्णन किया गया है, वह सर्वथा वैसा ही आदरयुक्त पंक्तियोंमें लिखा गया है, जैसा जिनपूजा या किसी जैन आचार्यके वारेमें लिखा गया हो । इसी तरह सिद्धराजकी माता मयणल्लाकी शिवभक्तिके विषयमें जो उल्लेख किया गया है वह भी वैसा ही निष्पक्ष भावसे भरा हुआ है । अगर मेरुतुङ्ग सूरिको शिवधर्मकी महत्ताके बारेमें अनादर होता तो वे इन उल्लेखोंको इसमें स्थान ही क्यों देते।
मुख्यतया जैन श्रोताओं ( श्रावकों ) के सम्मुख, व्याख्यान सभामें, जैन साधुओं-यतियोंके वाचने निमित्त, इस ग्रन्थकी रचना की गई है; इसलिये इसमें जैन व्यक्तियोंका और उनके कार्यकलापोंका ही अधिक वर्णन होना स्वाभाविक है । पर, उसके साथ ही मेरुतुङ्ग सूरिको, गुजरातके सर्व सामान्य प्रजाकीय और राष्ट्रीय जीवनकी उन्नायक इतर व्यक्तियों और उनकी कार्य-स्मृतियोंके तरफ भी अनुराग है, और इसलिये उन्होंने अपने इस संग्रहमें, उन इतर व्यक्तियोंकी जीवन-स्मृतियोंके भी, यथाश्रुत और यथाज्ञात वृत्तान्तोंको, जहाँ-वहाँ प्रथित For Private & Personal Use Only
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