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प्रास्ताविक वक्तव्य प्रसिद्ध हैं। एक-की-एक ही कथा वारंवार सुननेमें विज्ञ मनुष्योंके मनको विशेष आनन्द नहीं आता यह सर्वानुभव सिद्ध बात है । मेरुतुङ्ग मरिने इस बातका विचार कर, लोगोंका मनरंजन करनेके लिये, कथाकारोंको, कुछ नई सामग्री प्राप्त हो इस उद्देशसे, कितनेएक इतिहास-वृत्तान्तोंसे अलंकृत ऐसे इस प्रबन्धचिन्तामणि नामक प्रन्थकी रचना की।"
प्रन्थके अन्तमें वे, इस रचनाकें करनेमें एक दूसरा भी कारण बतलाते हुए लिखते हैं कि-" बहुश्रुत और गुणवान् ऐसे वृद्धजनोंकी प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्योंमें भी प्रतिभाका वैसा योग न होनेसे शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं । इस कारणसे तथा भावी बुद्धिमानोंको उपकारक हो ऐसी परम इच्छासे, सुधासत्रके जैसा, सत्पुरुषोंके प्रबन्धोंका संघटन रूप यह ग्रन्थ मैंने बनाया है।" मेरुतुङ्ग सूरिका यह कथन बहुत अनुभवपूर्ण और भावि परिस्थितिका द्योतक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि मेरुतुङ्ग सूरि इस ग्रन्थकी रचना द्वारा, इन पुरातन ऐतिह्य श्रुतियोंका, यह विशिष्ट संग्रह न कर जाते तो, आज हमें, उस जमानेकी इन इनीगिनी बातोंके जाननेका भी और कोई साधन उपलब्ध नहीं होता। यह सब-किसीको मंजूर करना पडेगा कि जैन धर्मके उस मध्यकालीन इतिहासकी जो अनेकानेक विश्वसनीय और प्रमाणभूत बातें, इस ग्रन्थमें उपलब्ध होती हैं और उसके साथ ही गुजरातके समूचे राष्ट्रीय इतिहासकी भी बहुत आधारभूत जो कथायें इसमें दृष्टिगोचर होती हैं, वैसी और किसी प्रन्थमें विद्यमान नहीं हैं। ८. प्रबन्धचिन्तामणिके उल्लेखों पर कुछ विद्वानोंके मिथ्या आक्षेप ।
कुछ कुछ विद्वानोंका खयाल है कि- ग्रन्थकार जैनधर्मी हानेसे, उसने इस ग्रन्थमें अपने धर्मका प्रभाव बतलानेकी दृष्टिसे, बहुत कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण कथन किया है; और उसके साथ अन्य धर्मकी-खास करके शैवधर्म और ब्राह्मण संप्रदायकी-लघुता बतानेका भी प्रयत्न किया है। इस ग्रन्थके उक्त इंग्रेजी अनुवादक मि. टॉनीने अपनी प्रस्तावनामें, इस बारेमें लिखा है कि- 'जिस तरह, एक्झीटर स्ट्रीटके एक छप्परके नीचेके कोनेमें बैठ कर, पार्लियामेंटके संभाषणोंको लेखबद्ध करते समय, डॉ० ज्होनसन् इस बातकी पूरी सावचेती रखता था कि ' व्हीगके प्रतिपक्षी उसमेंसे किसी तरहका कोई लाभ न उठा पावें '- इसी तरह सभी शंकास्पद स्थानोंमें, यह अमर्षशील जैन ग्रन्थकार, स्पष्ट रूपसे महावीरके धर्मके दृढ श्रद्धालु अनुयायियों ( अर्थात् जैनों) के पक्षकी ओर झुकता है; और जैन लोक, शैवोंकी तुलनामें कहीं नीचे न दिखाई दें इसकी सावधानी रखता है।' इत्यादि। इसमें कोई शक नहीं कि - ग्रन्थकार जैन धर्मका एक विद्वान् धर्माचार्य है और इस ग्रन्थकी रचनामें उसका प्रधान उद्देश जैन धर्मकी पुरातन महत्ता और गौरव गाथाको, कालके कुटिल और प्रबल प्रवाहके कारण नष्ट होनेसे बचा रखनेका है । अतएव बह इसमें अपने धर्मका उत्कर्ष बतानेवाली श्रुतियों और उक्तियोंका यथेष्ट उपयोग करे, यह स्वाभाविक ही है । उस पुराने जमानेमें, जब धार्मिक वाद-विवादकी बडी प्रतिष्ठा थी और उसका खूब जोरदार प्रचार था; एवं सभी धर्मोके और संप्रदायोंके अग्रणी विद्वान् गण अपनी अपनी विद्याका प्रभाव और पराक्रम बतलानेके लिये, राजसभाओंमें, नामी पहलवानोंके मुष्टि-प्रहारोंकी नाई, वाक्प्रहारोंकी बड़ी सख्त कुस्ती किया करते थे, तब उन विद्वान् प्रन्थकारोंकी तद्विषयक रचनाओंमें, ऐसी अमर्षशील भावना और लेखन-शैलीका दृष्टिगोचर होना नितान्त स्वाभाविक ही है । केवल जैन ग्रन्थकार ही इसमें अधिक उल्लेखनीय हैं सो बात नहीं है । संसारके सभी धर्मों, संप्रदायों, मतों और मंतव्योंके लेखक इससे मुक्त नहीं है । मेरुतुङ्ग सूरि भी उन्हीमेंका एक स्वधर्मप्रिय लेखक है, अतः उसके लेख में, अपने धर्मको नीचा दिखाने
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