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प्रबन्धचिन्तामणि
मिलते हैं । इस पिछले प्रकार के पद्योंको हमने पीछेसे लिखे गये अर्थात् प्रक्षिप्त माना है; और बाकीको मौलिक । इन दोनों तरहके पद्योंके लिये हमने दो प्रकारके क्रमांक दिये हैं । जो मौलिक हैं वे ' १.२. ३. ' इस प्रकारके चालू अंकोंसे सूचित किये गये हैं और जो प्रक्षिप्त हैं वे ' [१][२][३] ' इस प्रकार चोकौनी डबल ब्रैकेटवाले अंकोंसे बताये गये हैं । पद्योंकी तरह, मूल ग्रन्थ में, कुछ गद्य प्रकरण - कण्डिकायें भी प्रक्षिप्त हैं, जिनको हमने अपनी उस मूलावृत्तिमें तो जुदा तरहके टाईपोंमें और ऐसे अथवा [ ऐसे ब्रैकेटों के बीच में मुद्रित कीं हैं । यहाँ, इस भाषान्तर में वे कण्डिकायें जुदा टाईपों में न छाप कर, शीर्फ उनके ऊपर, ब्लेक टाईपमें ( ) ऐसे गोल ब्रैकेटमें, अथवा चालू टाईप में [ ] ऐसे चौकोनी ब्रैकेट में, उसकी ज्ञापक पंक्तियाँ लिख कर उल्लिखित कर दीं हैं । (- देखो, पृष्ठ १६, २०, ४८, ४९ इत्यादि । ).
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इस ग्रन्थमें जहाँ-वहाँ, जो प्रसङ्गोचित पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से कुछ तो ऐतिहासिक घटना बतानेचाले हैं और कुछ सुभाषित स्वरूप हैं । इनमेंके कुछ पद्य द्विअर्थी अर्थात् श्लेषार्थक हैं जिनका स्वारस्य संस्कृत या प्राकृत भाषा -ही-में ठीक आस्वादित हो सकता है । हिन्दीमें उसका अर्थ ठीक अनूदित नहीं हो पाता । ऐसे पद्योंके अर्थके विषयमें जहाँ तक हो सका, तदन्तर्गत मुख्य भावार्थ बतलानेका ही प्रयत्न किया गया है । कोई कोई पद्य ऐसे भी दुरवबोध मालूम देते हैं जिनका तात्पर्य ठीक ठीक समझमें नहीं आता । ऐसे स्थानोंमें जो अर्थ दिये गये हैं वे शंकित ही समझे जायँ - जैसा कि पृ. ७७ आदि पर सूचित किया गया है ।
कहीं कहीं गद्य कथनमें भी ऐसी दुरवबोधता और अस्पष्टार्थता प्रतीत होती है और उसका ठीक ठीक तात्पर्य नहीं जाना जा सकता - जैसा कि पृ. ९४ परकी टिप्पणीमें सूचित किया गया है ।
ग्रन्थकारने कहीं कहीं ऐसे अपरिचित शब्दों का प्रयोग किया है जो शुद्ध संस्कृतके न हो कर देश्य भाषाके हैं और जिनका अर्थ ठीक ठीक समझमें नहीं आता। ऐसे शब्दों के दिये गये अर्थ भी सर्वथा निर्भ्रान्त नहीं कहे जा सकते। इन सब शंकित स्थानों और अर्थोके विषय में पाठक हमें कोई दोष न दें ऐसी विज्ञप्ति है |
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जब यह भाषान्तर छपाना शुरू किया गया तब हमारी इच्छा थी, कि हम इसके साथ, इस ग्रन्थमें वर्णित विशेष विशेष ऐतिहासिक और भोगौलिक नामोंके बारेमें, अन्यान्य साधनोंद्वारा उपलब्ध या ज्ञात बातोंका परिचय करानेवाली विस्तृत टिप्पणियाँ दें; और इसमें जो कुछ पारिभाषिक शब्दसमूह और लोकोक्तिरूप वाक्य - विन्यास उपलब्ध होते हैं उनको स्फुट करनेवाली व्याख्यात्मक पंक्तियाँ भी लिखें । किन्तु, जब हमने कुछ ऐसी टिप्प णियाँ और पंक्तियाँ लिखनीं प्रारंभ कीं तो उनका कलेवर इतना बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा जो मूल ग्रन्थसे भी कहीं अधिक बढ़ जानेकी आशंका कराने लगा । और ये सब टिप्पणियाँ लिखनेका तो हमारा उत्कट लोभ है । क्यों कि इन्हीं टिप्पणियों द्वारा तो इस ग्रन्थका सारा महत्त्व प्रकट होनेवाला है । इसलिये फिर हमने यह विचार किया कि इन टिप्पणियों आदिका संकलनवाला एक पर्यालोचनात्मक पूरा भाग ही अलग निकाला जाय; जिससे भाषान्तरवाला यह भाग अनपेक्षित रूपसे विस्तृत न हो; और जिनको केवल प्रबन्धचिन्तामणिका मूलगत ग्रन्थसार मात्र ही पढ़ना-समझना अपेक्षित हो उनको इसके पढ़ने में कोई कठिनता प्रतीत न हो । इसीलिये हमने पृष्ठ ३, ११, १८ आदि पर जो टिप्पणियाँ दीं हैं उनमें यह सूचित कर दिया है कि इन बातोंका विशेष विवेचन या ऊहापोह इसके अगले भाग में किया जायगा - इत्यादि ।
यह अगला भाग, पुरातनप्रबन्धसंग्रह नामक मूल ग्रन्थके पूरकात्मक द्वितीय भागके, इसी तरहके
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