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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य उक्त रीतिसे फॉर्बस् सभाकी ओरसे इस ग्रन्थका, गुजराती भाषान्तर समेत, प्रकाशन होना चालू था, तब भी हमारे मनमें इसके प्रकाशनकी वह जो पूर्व कल्पना थी और इसके लिये जो साधन-सामग्री हमने बीसों वर्षांसे इकट्ठी करनी शुरू की थी, उसका खयाल कर, हमने अपने उसी ढंगसे, इस ग्रन्थका पुनः संपादन करना प्रारम्भ किया । और चूंकि इसका गुजराती भाषान्तर, हमारे साक्षरमित्र श्री दुर्गाशंकर शास्त्री कर चुके हैं, इसलिये हमने इसका हिन्दी भाषान्तर प्रकट करनेका मनोरथ किया। हिन्दी भाषा, यों भी सबसे अधिक व्यापक भाषा है और फिर अब तो यह राष्ट्रकी सर्व प्रधान भाषा बन रही है, इसलिये सिंघी जैन ग्रन्थमालाके कार्यका लक्ष्य हिन्दीकी ओर ही अधिक रखा गया है। इंग्रेजी और गुजरातीमें एकसे अधिक भाषान्तर होने पर भी हिन्दीमें इसका कोई भाषान्तर आज तक नहीं हुआ था; और इसकी कमी कई हिन्दी भाषाभाषी विज्ञजनोंको बहुत अर्सेसे खटक भी रही थी। हिन्दीके स्वर्गवासी प्रसिद्ध पण्डित और पुरातत्त्वज्ञ विद्वान् , चन्द्रधर शर्मा गुलेरीने बहुत वर्ष पहले हमसे अनुरोध किया था, और शायद नागरीप्रचारिणी पत्रिकाके एक लेखमें उन्होंने लिखा भी था, कि इस ग्रन्थका हिन्दी अनुवाद होना आवश्यक है । आशा है गुलेरीजीकी स्वर्गस्थित आत्मा आज इसे देख कर प्रसन्न होगी। ५. प्रस्तुत हिन्दी भाषान्तर । पाठकोंके हाथमें जो हिन्दी भाषन्तर उपस्थित किया जा रहा है, इसका प्राथमिक कच्चा खर्रा, जव हम शान्तिनिकेतनमें थे तब (सन् १९३२ में), वहाँके हिन्दी शिक्षापीठके विद्वान् आचार्य और हमारे सहृदय मित्र पं० श्रीहजारी प्रसादजी द्विवेदीने किया था, जिसको हमने अपने ढंगसे यथेष्ट रूपमें संशोधित-परिवर्तित कर वर्तमान रूप दिया है । इससे संभव है कि विज्ञ पाठकोंको इसमें कहीं कहीं भाषाविषयक शैलीका कुछ सूक्ष्म भिन्नत्व मालूम दे । हमारा प्रयत्न इस बातकी ओर रहा है कि भाषा जहाँ तक हो, सरल और सबको सुबोध हो; और जिनकी भातृभाषा खास हिन्दी न हो उनको भी इसके समझनेमें कोई कठिनाई न हो। इसलिये हमने इसमें ऐसे शब्दोंका बहुत ही कम प्रयोग किया है कि जो खास हिंदीका विशेष परिचय न रखनेवाले - राज्यस्थानी या गुजराती भाषाभाषी-जनोंको बिल्कुल अपरिचित मालूम दे । इस ग्रन्थके संस्कृत मूलकी लेखशैली कुछ संकीर्ण और समास-बहुल है । वाक्य बड़े लंबे लंबे और कुछ जटिलसे हैं । क्रियापदोंका व्यवहार इसमें बहुत कम किया गया है । रचना कहीं तो शिथिलसी और कहीं निबिड बन्धवाली है । इसलिये भाषान्तरमें भी हमें कहीं कहीं, मूलके अनुसार, कुछ लंबे वाक्य रखने पड़े हैं। भाषान्तरको हमने प्रायः संपूर्ण मूलानुसारी बनानेका लक्ष्य रखा है । मूलका कोई एक शब्द भी प्रायः छोड़ा नहीं गया है और ना-ही विशेष स्पष्टीकरणकी दृष्टिसे कोई अधिक शब्द या वाक्यांश बढाया गया है । जहाँ कहीं मूलके संक्षिप्त सूचन या अध्याहृत कथनमें, पाठकोंके स्पष्टावबोधके लिये, किसी अधिक शब्द या वाक्यांशके पूर्तिकी विशेष आवश्यकता मालूम दी, वहाँ उसे [ ] ऐसे पूरक ब्रैकेटमें समाविष्ट किया गया है। किसी खास शब्दका पर्याय वाचक दूसरा विशेष परिचित शब्द या उमका अर्थ बतलानेकी कहीं जरूरत दिखाई दी उसे ( ) ऐसे गोल ब्रैकेटमें दिया गया है। प्रकरणोंकी कण्डिकाओंके प्रारंभमें जो '१) २) ३)। ऐसे इकेरे गोल ब्रैकेटके साथ क्रमांक दिये गये हैं वे, हमारी मूल ग्रन्थकी आवृत्तिमें, इस ग्रन्धका अर्थानुसन्धान बतलानेवाली कण्डिकाओंके जो क्रमांक हमने दिये हैं, उसीके बोधक हैं । मूलमें जो संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके अनेकानेक प्राचीन पद्य उद्धृत किये गये हैं उनको हमने दो भागोंमें विभक्त किया है। एक वे जो प्रायः सब प्रतियोंमें समान संख्यामें मिलते हैं और दूसरे वे जो खास कोई एकाध ही प्रतिमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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