SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प] प्रबन्धाचन्तामणि १९४४ में, बम्बईसे किया था। उसीके साथ उन्होंने, इसका गुजराती भाषामें अनुवाद भी छपवा कर प्रकाशित किया था। शास्त्रीजीका यह अनुवाद - जिसे अनुवाद नहीं लेकिन एक तरहका विवरण कहना चाहिए-पुराने ढंगसे और पुरानी शैलीकी भाषामें किया गया था और इसमें उन्होंने अपनी तरफसे भी बहुतसे वाक्य और विचार, जो मूलमें सर्वथा नहीं थे, खूब फैला फैला कर लिख दिये थे । परन्तु साथमें कोई ऐतिहासिक पर्यालोचनकी दृष्टिसे उपयुक्त ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया था। अनुवादमें - खास करके प्राकृत गाथाओं और सुभाषित रूपसे उद्धृत पद्योंके भाषान्तरमें - तो अनेकानेक बड़ी बड़ी भद्दी भूलें भी की गई हैं, जिनका यहाँ पर दिग्दर्शन कराना निरर्थक है । यहाँ पर इतना यह अवश्य कहना चाहिये कि इस उपयोगी ग्रन्थको सर्वसाधारणके लिये सुलभ बनानेका श्रेयस्कर कार्य, सबसे प्रथम उन्हीं शास्त्रीजीने किया और तदर्थ उनकी स्मृति सदैव आदरकी दृष्टिसे की जानी चाहिए। जैसा कि, प्रथम भागरूप मूल ग्रन्थकी प्रस्तावनामें सूचित किया है, गुजरातके इतिहासकी दृष्टिसे इस ग्रन्थका महत्त्व लक्ष्यमें रख कर, हमने अहमदाबादके गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरकी ओरसे - जिसके कि हम सर्व प्रधान संचालक और नियामक थे- इसकी एक सर्वांगपूर्ण सुविस्तृत आवृत्ति, विशुद्ध मूल और उत्तम गुजराती भाषान्तर आदिके साथ, प्रकट करनेका प्रयत्न करना शुरू किया था। यथानुक्रम, मूलका कुछ भाग संशोधित और संपादित कर, बम्बईके सुप्रसिद्ध कर्णाटक प्रेसमें छपनेको भी भेज दिया था और उसमें प्रायः प्रथमके दो प्रकाश जितना भाग छप भी चुका था। उसी बीचमें हमारा युरोप जाना हुआ और वह कार्य कुछ समयके लिये स्थगित रहा । करीब दो बर्षके बाद, वहाँसे हम जब वापस आये तो, देशमें राष्ट्रीय आन्दोलन बड़े जोरोंसे शुरू हुआ और हम भी उसमें संलग्न हो गये । सन् १९३० के अप्रेल में, धारासणाके विख्यात नमक-सत्याग्रहमें सम्मीलित होनेके लिये, अहमदाबादसे ६०-७० जितने सत्याग्रहियोंकी एक जबर्दस्त टोली ले कर हमने प्रस्थान किया। पर अहमदाबादसे दूसरे ही स्टेशन पर, सरकारने हमको गिरफ्तार कर लिया और वहीं जंगल-ही-में मॅजिस्ट्रेटने हमको छ महिनेकी सजा दे कर, पहले बम्बई और फिर वहाँसे नासिक जेलमें भेज दिया। इधर पीछेसे, गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरको भी-गुजरात विद्यापीठके साथ - सरकारने कब्जे कर, उसके विशाल ग्रन्थसमूहको जब्त कर लिया और उसकी वह सब स्थिति छिन्न-भिन्न हो गई। इस तरह प्रबन्धचिन्तामणिके विस्तृत प्रकाशनका जो आयोजन हमने गुजरात पुरातत्त्व मन्दिरकी ओरसे किया था, वह एक प्रकारसे उन्मूलित हो गया । इस परिस्थितिको जान कर, बंबईकी 'फॉबेस गुजराती साहित्य सभा'ने, जिसका भी प्रधान ध्येय गुजरातकी प्राचीन संस्कृतिके विविध साधनोंको प्रकाशमें लानेका है, इस प्रन्थके प्रकाशनका कार्य हाथमें लिया और हमारे विद्वान् मित्र एवं गुजरातके इतिहासके एक विशिष्ट अभ्यासी, साक्षर श्रीदुर्गाशंकर केवलराम शास्त्रीको वह कार्य सौंपा गया। यह जान कर हमने शास्त्रीजीको हमारे मूलके छपे हुए उक्त उन दो प्रकाशोंके एडवान्स फार्म भी उनके उपयोगके लिये भेज दिये । शास्त्रीजीने यथाशक्ति परिश्रम कर, पहले ग्रन्थका मूल भाग तैयार कर उसे प्रकट करवाया और फिर उसका शुद्ध गुजराती भाषान्तर, कितनीक ऐतिहासिक टीका-टिप्पणियों के साथ संपादित कर, उक्त सभाकी ही औरसे प्रकाशित कराया। ४. प्रबन्धचिन्तामणिका हमारा प्रकाशन । जेलनिवाससे मुक्त होने पर कैसे दानवीर बाबू श्री बहादुरसिंहजीकी प्रियकर प्रेरणासे हमारा जाना शान्तिनिकेतन-विश्वभारतीमें हुआ और वहाँ पर रहते हुए कैसे इस 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका कार्य प्रारंभ किया गया- इत्यादि बातें हमने, संक्षेपमें, इसके पहले भागमें उल्लिखित कर दी हैं जिनको यहाँ पर दुहरानेकी आवश्यकता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy