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प्रास्ताविक वक्तव्य
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“ राजतरंगिणी के अकेले अपवादको बाद किया जाय तो, संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक कहलाने लायक एक भी कोई ग्रन्थ नहीं है - ऐसा जो आक्षेप वारंवार किया जाता है, वह इस प्रबन्धचिन्तामणि जैस ग्रन्थके अस्तित्वसे, किसी अंशमें भोटा पाडा जा सकता है। इस आक्षेपको निःसार सिद्ध करना यह स्वर्गगत हो फ्राथ प्रोफेसर ब्युहलरकी जीवन भरकी अभिलाषा थी । ग्रन्डरिस्स् डेर इन्डो-आरिशेन फिलोलोगी ( Grundriss der Indo-Arischen Philologie ) नामक ग्रन्थमाला के लिये, डॉ० ब्युहलरकी रसप्रद जीवन कथाका आलेखन करनेवाले प्रो० जोलीने ( Jolly ), ई० स० १८७७ में श्रीयुत न्योल्डेके ( Noldeke ) नामक विद्वान् पर लिखे हुए म्युहलरके एक पत्रमेंसे अवतरण दिया है, जिसमें उन्होंने लिखा था कि' भारतवासियोंके पास कुछ भी ऐतिहासिक साहित्य नहीं है इस प्रकारकी मान्यता रखने में आपलोग वर्तमान समयसे कुछ थोडेसे 'पिछडे हुए मालूम दे रहे हैं । पिछले बीस वर्षोंमें ठीक ठीक विस्तृत ऐसे पाँच ऐतिहासिक ग्रन्थ मिल आये हैं, जो उनमें वर्णि घटनाओंके समकालीन ग्रन्थकारोंके बनाये हुए हैं। इनमेंसे ४ तो, जिनके नाम विक्रमांकचरित, गउडवहो, पृथ्वीराजदिग्विजय और कीर्तिकौमुदी हैं, खुद मैंने खोज निकाले हैं। और एक डझनसे भी अधिक अन्य और ग्रन्थ खोज निकालनेकी तलाश में हूँ । ' यह प्रोफेसर ब्युहलर ही के श्रमका फल है कि जो इतने सारे ऐतिहासिक वृत्तांत, इतने ऐतिहासिक काव्य और इतनी ऐतिहासिक कथायें संपादित हों सकीं। इस ग्रन्थके इंग्रेजी अनुवादके करनेका काम जो मैंने हाथमें लिया वह भी डॉ० न्युलर-ही-की सूचनाका परिणाम है; और जो कोई पाठक मेरी टिप्पणियों के पढ़ने का कष्ट उठायेगा उसे स्पष्ट ज्ञात हो जायगा, कि उन्हीं के उत्तेजन और साहाय्यके विना मेरा यह काम अपने अन्तको न प्राप्त कर सकता । इस अनुवादके साथ ऐतिहासिक और भौगोलिक विषयों की पूर्ति करनेवालीं टिप्पणियाँ लिखनेका उनका खास इरादा था। अगर यह बन पाता तो इस ग्रन्थकी उपयोगिता में खूब महत्वकी वृद्धि हो पाती; पर इस विचार के, कार्यरूपमें परिणत होने के पहले ही, दुर्दैवसे उनका अवसान हो गया और अब यह बात 'मनकी बात मनमें ही रही ' जैसी कहावत के योग्य हो गई । भारत के इतिहास विषयक साहित्यके बारेमें और उसमें भी खास करके गुजरातके इतिहासके साथ संबद्ध साहित्य के संबन्धर्मे, हरएक इंग्रेज विद्यार्थीको एक और नामका स्मरण हो आना चाहिए और वह नाम है रासमालाके कर्ता श्री एलेक्सेंडर किन्लॉक फॉस्का । मि. ए. जे. नैर्ने, बी. सी. एस. ( Mr. A. J. Nairne, B. C. S. ) ने फॉर्बस् साहबका जीवनचरित लिखा है, जो कर्नल वॉटसन् द्वारा संपादित और सन् १८७८ में प्रकाशित, रासमालाकी आवृत्तिके प्रारंभ में मुद्रित है । श्री फॉर्बस् साहब एक ऐसे इन्डियन सिवीलियन थे, जिनको अपने भाग्यका पासा जिन लोगोंके साथ डाला गया उन लोगोंके इतिहास, वाङ्मय और पुरातत्त्रके विषय में पूरा रस रहता हो । इस विषयकी उनकी, उत्कण्ठा और सत्यनिष्ठापूर्ण अध्ययनशीलताकी प्रतीति, रासमाला के प्रत्येक पृष्ठ पर होती रहती है। जिन अनेक मूलभूत आधारोंके ऊपरसे उन्होंने अपना ग्रन्थ तैयार किया, उनमेंका यह एक प्रबन्धचिन्तामणि है। इस ऐतिहासिक ग्रन्थका उन्होंने इतना तो संपूर्ण उपयोग किया है कि जिसे देख कर मेरे मनमें, अपने इस अनुवादके करते समय, वारंवार यह उठ आता या कि मैं निरर्थक ही यह श्रम कर रहा हूँ । किन्तु प्रो० ब्युहलरने मुझसे कहा था कि इस ग्रन्थका संपूर्ण इंग्रेजी अनुवाद हो ऐसी इच्छा स्वयं फॉर्बस्ने अनेक वार प्रदर्शित की थी* । और यही मेरे इस परिश्रमकी उपयोगिताका आधार है । लेकिन, मैं अपने मनको इस तरह भी प्रोत्साहित रखना चाहता हूँ कि मध्यकालीन इस जैन यतिने लिख रखी हुई इन श्रुतपरंपराओंमें, जिनका विवरण या संक्षिप्तीकरण करनेसे इनके मूलमें रही हुई आधी मोहकता नष्ट हो जाती है, न केवल भारतके इतिहासके अभ्यासियोंही - को, किन्तु तदुपरान्त लोककथाओंके ज्ञाताओंको और मानव-नीति-शास्त्र के विद्वानोंको भी, रस प्राप्त होगा । ग्रन्थकार स्वयं भी कहता है कि इस रचनाके करनेमें मेरा उद्देश जनमन रंजन करनेका है । " इत्यादि ।
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३. प्रबन्धचिन्तामणिके मूल संस्कृत ग्रन्थका प्रथम प्रकाशन और गुजराती भाषान्तर । जैसा कि हमने, अपनी मूल आवृत्तिके प्रारम्भमें दिये हुए ' किंचित् प्रास्ताविक ' शीर्षक वक्तव्यमें लिखा है, इस ग्रन्थके संस्कृत मूलका प्रथम प्रकाशन, गुजरातके शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथ नामक विद्वान्ने, संवत्
* फॉर्मस् साहबकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी, बल्कि उन्होंने तो इसका पूरा इंग्रेजी अनुवाद खुद ही सबसे पहले कर लिया था और फिर उसका उपयोग रासमालामें किया था; ऐसा बम्बईकी फॉर्बस् सभामें जो उनका ग्रन्थसंग्रह विद्यमान है उससे मालूम होता है। बम्बई के इस संग्रह में फॉर्बस् साहब की हाथ की लिखी हुई एक नोटबुक है जिसमें इस ग्रन्थके ३,४ और ५ वें प्रकाशका इंग्रेजी भाषान्तर लिखा हुआ है। पहले दो प्रकाशोंका भाषान्तर, शायद किसी दूसरी नोटबुकमें लिखा हुआ होगा जो अब उपलब्ध नहीं है। श्री टॉनीको इसकी खबर न होनेसे, शायद उन्होंने वैसा लिखा होगा । अथवा वह भाषान्तर वैसा पूर्ण और शुद्ध न होगा जिससे फॉस्को संतोष रहा हो, और इसीलिये उन्होंने इसका एक उत्तम भाषान्तर, योग्य संस्कृतश पण्डितके हाथसे हो, ऐसी इच्छा डॉ० ब्युहलरके आगे प्रदर्शित की हो ।
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