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प्रबन्धचिन्तामणि
इस ग्रन्थके कई उल्लेखोंका आधार लिया है । इसी तरह १८ वीं शताब्दीमें बने हुए वस्तुपालरास, कुमारपालरास आदि भाषा ग्रन्थोंके रचयिताओंने भी अपनी अपनी कृतियोंमें इस ग्रन्थका बहुत कुछ उपयोग किया है, जिनका विशेष वर्णन करना आवश्यक नहीं है।
इस कथनसे ज्ञात होता है कि उस पुरातन समयसे ही मेरुतुङ्ग सूरिके इस महत्त्वके ग्रन्थकी अच्छी ख्याति और उपयोगिता स्थापित हो गई थी। २. प्रबन्धचिन्तामणिकी वर्तमान नवीन युगमें प्रसिद्धि और उपयोगिता।
प्रवर्तमान नवीन कालके प्रारंभ में, सबसे पहले इंग्रेज विद्वान् श्री एलेक्जेंडर किन्लॉक फॉस साहबको इसका परिचय हुआ और उन्होंने गुजरातके इतिहास विषयकी अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'रासमाला' में इसका सर्वप्रथम उपयोग किया। अपने ग्रन्थमें लिखे गये गुजरातके प्राचीन इतिहासका मुख्य ढांचा उन्होंने इसी प्रन्थ परसे तैयार किया। वे अपने ग्रन्थमें, इस ग्रन्थका पद पद पर उल्लेख करते हैं और इसमें लिखी गई बातोंका संपूर्ण उपयोग करते हैं । उनके पीछे, भारतीय पुरातत्त्वके प्रखर पण्डित, जर्मन विद्वान् , डॉ० ब्युहलरने इस प्रन्थका खूब बारीकीके साथ अध्ययन किया और इसमें वर्णित ऐतिहासिक तथ्योंका सविशेष ऊहापोह किया। 'इन्डियन ऐन्टीकेरी' नामक भारतीय-विद्या विषयक सुप्रसिद्ध पत्रिकाके सन् १८७७ के जुलाई मासके अंकमें उन्होंने 'अनहिलवाडके चालुक्योंके ११ दानपत्र' (Eleven land-grants of the Chalukyas of Anbilvad) इस शीर्षक नीचे, अणहिलपुरके राजकीय इतिहास पर प्रकाश डालनेवाला एक महत्त्वका लेख लिखा जिसमें इस प्रबन्धचिन्तामणि कथित बातोंका अच्छा अवलोकन किया। फिर उसके बादमें, डॉ० ब्युहलरने, जर्मन भाषामें Uber das Leben des Jaina Monehes Hennacandra इस नामसे, आचार्य हेमचन्द्रका सविस्तर जीवनचरित्र लिखा, जिसमें उन्होंने प्रस्तुत प्रबन्धचिन्तामणिका पूरा पूरा उपयोग किया । इसके बाद, बंबई सरकारने, बॉम्बे गेझेटियरके, लिये जब गुजरातका प्राचीन इतिहास तैयार करवाया, तो उसके संकलनकर्ता प्रसिद्ध गुजराती पुरातत्त्वज्ञ डॉ० भगवानलाल इन्द्रजीने, इस ग्रन्थका बहुत सूक्ष्मताके साथ सांगोपांग निरीक्षण किया और गुजरातके राजकीय इतिहासके साथ संबन्ध रखने वाली प्रायः सारी ऐतिह्य उक्तियों और श्रुतियोंका जो जो इसमें निर्देश मिलता है उन सबका ठीक ठीक पर्यालोचन कर, यथायोग्य उनका उपयोग किया। तदुपरान्त, गुजरातके इतिहास विषयक भिन्न भिन्न प्रकारके पुस्तकों और निबन्धोंके रचयिता एतद्देशीय और विदेशीय सैंकडों ही विद्वानोंने जहां-तहां इस ग्रन्थका अनेकशः आधार लिया है और उल्लेख किया है।
इस ग्रन्थकी ऐसी सार्वजनिक उपयोगिताको लक्ष्य कर, रासमालाके कर्ता विद्वान् फॉर्बस् साहबकी, और तदनुसार डॉ० ब्युहलरकी भी, यह खास इच्छा रही कि विस्तृत टीका-टिप्पणियोंके साथ इस ग्रन्थका संपूर्ण इंग्रेजी अनुवाद किया जाय । डॉ० ब्युइलरकी इस इच्छाको, कथासरित्सागर आदि प्रसिद्ध संस्कृत कथाग्रन्थोंके सिद्धहस्त इंग्रेजी अनुवादक, इंग्रेज विद्वान् , श्रीयुत सी. एच्. टॉनी, एम् . ए. ने पूरा किया। उन्होंने इस ग्रन्थका सुन्दर और संपूर्ण इंग्रेजी अनुवाद किया जिसको कलकत्ताकी एसियाटिक सोसाइटीने सन् १९०१ में छपा कर प्रकाशित किया। डॉ० ब्युहलरकी उत्कण्ठा थी कि वे टॉनीके इस भाषान्तरके साथ, ऐतिहासिक और भौगोलिक विषयोंकी परिचायक ऐसी अपनी टीका-टिप्पणियाँ दे कर, इस ग्रन्थकी उपादेयताका महत्त्व बढ़ावेंगे; पर दुर्दैवसे इस कार्यके पूर्ण होनेके पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया और उनकी वह इच्छा यों ही अपूर्ण रह गई। विद्वान् टॉनीने अपने इंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावनाके प्रारंभमें, जो इस बारेमें कुछ लिखा है, उसका भावार्थ यह है
* डॉ. न्युहलरका यह बडे महत्त्वका ग्रन्थ है। इसका इंग्रेजी अनुवाद The Life of Hemacandracarya इस नामसे, हमने अपने सहकारी मित्र डॉ. मणिलाल पटेल Ph. D. (मारबुर्ग-जर्मनी) द्वारा करवा कर, इसी सिंघी जैन अन्यमालाके १२ वें नंबरमें प्रकाशित किया है। इंग्रेजी ज्ञाता विद्वानोंके लिये यह ग्रन्थ अवश्य पठनीय है।
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