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________________ कुमारपाल राजाका अहिंसाके साथ विवाह-संबन्धका रूपकात्मक प्रबन्ध [१५५ करना रहने दे ! मैं तो अनुकूल प्रेमीको चाहती हूँ। पुरुष प्रायः परुष आशयवाले, और नाना प्रकारके अनुरागवाले होते हैं; उनसे मेरा क्या काम है । क्यों कि रूप यौवन सम्पन्ना कन्याका अविवाहित भी रहना वरन् अच्छा है, किन्तु कलाहीन, अननुकूल, कु-पतिसे विडंबित होना [ अच्छा ] नहीं ॥ ३ ॥ पर सुनो,-अगर दरिद्र हो कर भी पति जो प्रियकारी हो तो उससे विवाहित स्त्रीको जैसा सुख होता है वैसा सुख ईश्वर ( बड़े धनसंपन्न ) से भी नहीं प्राप्त होता । [ देखो न ] भागीरथी ( गंगा) को शिव तो शिरपर धारण करते हैं, पर लक्ष्मीके पति ( विष्णु ) उसे पैरसे भी नहीं छूते ! सो मुझे वरण करनेकी अभिलाषा तो वृथा ही समझो । क्यों कि मेरी प्रतिज्ञाका किसी महाराजासे भी 'पूरा होना कठिन है ।' ऐसा कहनेवाली उस युवतीसे वह (दासी) बोली-'सखि ! मैं तुम्हारी प्रियकारिणी सखी हूँ, कुछ अपलाप तो करनेकी नहीं; सो तुम अपना अभिमत मुझे स्पष्ट कह बताओ। मेरा भी नाम सुबुद्धि है, मैं तुम्हारी प्रतिज्ञा उस कुमारपाल राजासे पूरी कराऊंगी।' ऐसा कहनेपर वह बोली सत्यवक्ता, परलक्ष्मीका त्यागी, समस्त जीवोंको अभय-दाता, और सदा अपनी ही स्त्रीसे सन्तुष्ट, [ ऐसा __जो पुरुष होगा ] वही मेरा पति होगा ॥५॥ दुर्गतिके बन्धु जैसे दूत स्वभाववाले सात पुरुषों ( अर्थात् , सात व्यसनों ) को जो अपने चित्तसे दूर निकाल फेंक देगा वही मेरा पति होगा ॥ ६॥ मेरे सहोदर भाई सदा चार को अपने हृदयासनपर बैठा कर एक चित्तसे जो उसकी सेवा करेगा वही मेरा पति होगा ॥ ७ ॥ उसकी इस बातको सुन कर वह बोली-'ऐ सुलोचने ! सुनो, मैं यथार्थनामा ( सुबुद्धि ) तब हूँगी जब तुम्हारी प्रतिज्ञाको पूरा करनेके लिये, श्री हेममूरिको आगे कर, समस्त लोकके सामने, तुम्हारे इन प्रतिज्ञात अर्थोका समर्थन करा कर, तुम्हें परिणीत कराऊँगी। और तभी, तुम मुझे अपनी चतुर सखी मानना, नहीं तो तिनकेसे भी गयी बीति समझना।' यह कह कर, फिर राजाकी सभामें जा कर उसने उसकी वह कठिन प्रतिज्ञा कह सुनाई । उसकी इस अवाभरी प्रतिज्ञाके कठोर भावसे हृदयमें सन्तत हो कर राजा बडी बेचेनी धारण करने लगा। तब सुबुद्धिने कहा-'हे श्रीनिधे ! धीरज धरो, पौरुष-शालियोंको दुष्कर क्या है ? और इस बाधाके दूर करनेके उपाय भी तो हैं । महर्षि हेमचन्द्रका अनुरसरण करो और उनका उपदेश सुनो!' इस प्रकार उसकी बात सुन कर वि न य का सहारा पा कर वह राजा सूरिके पास गया। उनके पद-पद्मोंमें प्रणाम कर उनकी कन्याकी उस प्रतिज्ञाका वृत्तान्त कहा । [ सूरि बोले-] ' वत्स ! यदि परिणयनकी चाह है तो फिर उसकी प्रतिज्ञा पूरी करो। यह कन्या अपने पतिकी निःसीम उन्नतिके लिये होगी । क्यों कि उत्तम वंशोत्पन्न, धन्य और गुणाधिका सती कन्यासे विवाह करके कौन प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त करता ! लक्ष्मी और पार्वतीके साथ विवाह कर गोप ( कृष्ण ) और उग्र ( शिव ) ने जिस तरह [प्रतिष्ठा ] पाई थी। ॥ ८ ॥ उनकी यह बात सुन कर, दुरित समूहको दूर कर देनेवाली ऐसी हस्ताञ्जली किये हुए उस राजाने, अनेक प्रकारके अभिग्रह धारण करके, उस कन्याका वाग्दान प्राप्त किया और वह बड़ा प्रमुदित हुआ । सं० १२१६ मार्गशीर्ष सुदि द्वितीयाको, बलवान् लग्नमें, संवेग नामक हाथीपर आरूढ हो, रत्नत्रयसे अलंकृत, शुभमनरूप वस्त्र धारण करके, दक्षिण हस्तमें कंकण बाँध कर, वह [हेमसूरिकी ] पौषधशालाके द्वारपर आया। उस समय श्वेतच्छत्र द्वारा उसका आतप निवारण किया जा रहा था; श्रद्धा नामक बहन उसकी लवण-आरती उतार रही थी; For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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