________________
१५४ ]
प्रबन्धचिन्तामणि सदाचार-प्रसरण-शीला थी फिर भी धीमी चालसे चलनेवाली थी। वह मुनियोंके साथ क्रीड़ा किया करती थी। अपनी सुकोमल वाणीके प्रपञ्चसे उसने त्रैलोक्यको चमत्कृत कर दिया था, और उसकी आकृति मन्द मुसकानसे खूब मधुर हो रही थी। इस बालिकाको देख कर उसके रूपसे हृत-चित्त हो कर राजाने किसी निकटस्थ प्रसन्नचित्त (साधुजन ) से पूंछा कि-' भला यह लड़की कौन है ?' उसने कहा कि-'अपार ऐसे शास्त्र-सागरके पारको देख लेनेके कारण जिन्होंने 'कलिकाल सर्वज्ञ 'की प्रसिद्धि प्राप्त की है; द्वादश भेदोंवाली तपस्याकी आराधनाके द्वारा, अष्ट महासिद्धियोंको जिन्होंने वशमें कर लिया है; समग्र भूपालोंके शिरःप्रदेशकी मणियोंने जिनके चरणोंका चुंबन किया है। उन्हीं महर्षि भगवान् आचार्य श्री हेमचंद्रके आश्रममें रहनेवाली यह अहिंसा नामक कन्या है । इसके यथार्थ रूपका निरूपण करने में स्मृति और पुराणके वचन तो पर्याप्त नहीं है; किन्तु समस्त जंतुओंके पितृ-स्वरूप श्री जिनेन्द्र देवके उपदिष्ट स्पष्ट सिद्धान्तों और उपनिषदों द्वारा आवासित हृदयवाले किसी मुनिश्रेष्ठने इसकी स्थितिकी रीतिका पूरा निरूपण किया है - अन्य किसीने वैसा नहीं किया। यह वचन सुन कर राजा अपने आवासमें लौट आया। पर उस कन्याका स्वरूप जान कर, उसका अंगीकार करनेके लिये परम उत्सुक वह राजा, उसके पाणिग्रहणके द्वारा अपनी भाग्य-सम्पद आदिको कृतार्थ करनेकी कामनासे, अपने 'विवेक' नामक परम मित्रके बताये हुए मार्गसे उन मुनियोंके आश्रममें जा पहुंचा। उस कन्याके सामने उसीका ‘स दा चार' नामक भाई खेल रहा था। उसीने जा कर सम-चित्तवृत्तिवाले महर्षि श्री हेम चंद्र सूरि को राजाके आगमनका वृत्तान्त बतलाया। राजाने पृथ्वीतलपर मस्तक टेक कर, उन्हें भक्ति और हर्षके साथ, प्रणाम किया और फिर उस कन्याका स्वरूप पूंछा। इस पर वे बोले-' हे नरपुंगव ! सुनो, त्रैलोक्यके एकमात्र सम्राट श्री अर्हद्धर्मकी पट्ट महादेवी श्रीमती अनुकंपा देवीके कुक्षि-सरोवरकी राजहंसी जैसी, निःसीम सुन्दरी यह 'अहिंसा' नामक कन्या है । जिस लग्नमें यह कन्या पैदा हुई थी उस लग्नके ग्रहबलको इसके सर्वज्ञ पिताने इस प्रकार निर्दिष्ट किया था- यह अतीव पुण्यवती, सुदतियोंकी शिरोमणि कन्या है। पुत्रजन्मोत्सवसे भी अधिक प्रशंसनीय इसका जन्म है । क्यों कि
लक्ष्मी [ रूप कन्यासे ] समुद्रको और वाग्देवी [ रूप कन्यासे ] ब्रह्माको विश्रुत देख कर, कुपुत्रके दुःखसे सूर्य और चन्द्रमा ताप और कलंकका त्याग नहीं करते हैं ॥ २ ॥
इस लिये क्रमशः बढ़ती हुई यह कन्या अपने अनुरूप वर न पानेके कारण वृद्ध-कुमारी हो जाने पर किसी अनुरूप राजासे साग्रह विवाहित होगी। इस प्रकार सतियोंमें श्रेष्ठ यह कन्या अपने पति और पिता दोनोंको उन्नतिकी पराकाष्ठापर पहुँचा देगी। और इससे विवाह करनेवाला वह पुरुष भी खेलहीमें महा-मोह नामक राजाको जीत कर परमानन्दका भाजन बनेगा।' यह सुन कर राजा बोला- 'प्रभो ! यह अर्हद्धर्मकी पुत्री इस समय आपके ही चरण कमलोंकी उपासना करती है, अतः इसका विवाह आपहीके कहनेसे होगा, अन्य किसीसे नहीं। सो पूज्य-पाद मुझपर प्रसन्न हों, विषादगण विषण्ण हों, महामोहका विजय करना प्रारंभ हो, और [ उससे ] मैं परमानन्द प्राप्त करूं ।' उसके इस कथनके बाद गुरु बोले-'यह वृद्धा कुमारी है, इसका संकल्प दुष्पूरणीय है। वह संकल्प इसीके मुँहसे सुन कर विवाह करना चाहिये, अन्यथा नहीं।' इस प्रकार उनकी अमृतकी जैसी वह वाणी सुन कर, उसने कन्याके पास सुबुद्धि नामक दासी भेज कर उसे बुलवाया । वह दासी उस कन्याके पास जा कर भक्ति-पूर्वक प्रणाम करके बोली- स्वामिनि, राजकन्ये, [आज ] तुम धन्यतमा हो, जो तुम्हें, अट्ठारह देशोंके सम्राट् , और समस्त सामन्तोंके मस्तक-मणियोंकी किरण-मालासे जिनका चरण अलंकृत है वह चौलुक्य-चक्रवर्ती तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं ।' उसकी इस बातसे कुछ मुँह बना कर, उपहासके उल्लासके साथ, उसने कहा- सखि, जिस महान् साम्राव्यका अन्त नरक है उसके लोभकी बातका विस्तार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org