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________________ ग्रन्थकारकी प्रशस्ति । बहुश्रुत और गुणवान् ऐसे वृद्ध जनोंकी प्राप्ति प्रायः दुर्लभ हो रही है और शिष्योंमें भी प्रतिभाका वैसा योग न होनेसे शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारणसे, तथा भावी बुद्धिमानोंको उपकारक हो ऐसी परम इच्छासे, सुधासत्रके जैसा, सत्पुरुषोंके प्रबन्धोंका संघटनरूप यह ग्रन्थ मैंने बनाया है ।। १ ॥ यह, प्रबन्धसंग्रहका चिन्तामणि, चिरकाल तक हाथपर रहनेसे स्यमन्तक मणिका भ्रम पैदा करता है और हृदयमें स्थापन करनेपर प्रशंसनीय ऐसे विमल कौस्तुभ मणिकी कलाका सृजन करता है। सो इस ग्रन्थके अध्ययनसे विद्वान् लोग श्रीपति ( विष्णु ) की नाईं शोभित होते हैं ॥२॥ मन्दबुद्धि हो कर भी, मैंने जैसा सुना वैसा ही, प्रबन्धोंका संकलन करके यह ग्रन्थ बनाया है। पण्डित लोग मत्सरताका त्याग करके, अपनी प्रज्ञाके उन्मेषसे इसकी उन्नति ही करें ॥ ३ ॥ ग्रहों रूपी कोड़ियोंसे जब तक धुलोकमें सूर्य और चन्द्रमा, जुआड़ीकी तरह क्रीड़ा करते रहें तब तक आचार्यों द्वारा उपदिष्ट होता हुआ यह ग्रन्थ विद्यमान रहो ॥ ४ ॥ विक्रमादित्य संवत्के १३६१ वर्ष बीतनेपर, वैशाख मासकी पूर्णिमाके दिन यह ग्रन्थ समाप्त हुआ॥५॥ [ गद्यमें फिर यही कथन ] राजा श्री विक्रमके समयसे १३६१ वर्ष बीतनेपर वैशाख सुदि . रवि वारको, आज यहाँ श्री वर्द्ध मा न (काठियावाडके आधुनिक व ढ वा न नगर ) में यह प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ समाप्त किया गया । -:: परिशिष्ट कुमारपाल राजाका अहिंसाके साथ विवाह-संबन्धका रूपकात्मक प्रबन्ध* श्रीमान् हे म चन्द्र के समान तो गुरु और श्रीमान् कुमार पाल के समान जिनभक्त राजा न तो हुआ और न [ अब कभी ] होगा ॥ १ ॥ प्रभु श्री हेमाचार्यके पास ज्ञान-दान प्राप्त करके उसके पश्चात् श्री चौलुक्यचक्रवर्ती कुमारपालने जो हिंसाका निवारण किया था उसका [रूपकात्मक ] प्रबन्ध इस प्रकार है - एक अवसर पर, अणहिल्लपुर), श्री कुमारपाल नागक राजाने, घुड़दौड़की क्रीड़ा करनेके लिये जाते समय, एक ऐसी बालिकाको देखा जिसने अपने सौन्दर्यसे सुरसुन्दरियोंको भी मात कर दिया था और जिसका मुख बाल-चन्द्रमाके समान मनोहर था। यद्यपि वह * टिप्पणी-यह परिशिष्टात्मक प्रबन्ध, इस ग्रन्थकी बहुसंख्यक पोथियोंमें लिखा हुआ मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार मेरुतुङ्ग सूरिने ही इसकी रचना की है-पर ऐतिहासिक न हो कर यह एक इसलिये इसको परिशिष्टके रूपमें ग्रन्थके अन्तमें जोड़ दिया मालूम देता है। कुमारपाल ने अपने धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्र सू रि के पास जैनधर्मकी गृहस्थ दीक्षा (श्रावकधर्मव्रत) स्वीकार करते समय, सबसे पहले जब अहिंसा व्रतका स्वीकार किया, उस समयको लक्ष्य करके इस रूपकात्मक प्रबन्धका प्रणयन किया गया है। इसमें अहिंसाको एक राजकन्या बनाई है जो आचार्य हेमचन्द्रके आश्रममें पलकर बड़ी उम्रवाली- वृद्धकुमारी हो गई है। अन्यान्य राजाओंके अधार्मिक आचरण देख कर वह किसीके साथ विवाह करना नहीं चाहती; किन्तु, कुमारपाल जो आचार्य हेमचन्द्रका शिष्य बना है उसके धर्मभावसे मुग्ध हो कर, आचार्यके आदेशसे वह उसका पाणिग्रहण कर लेती है-बस यही इस प्रबन्धका सारार्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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