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प्रबन्धचिन्तामणि
[पंचम प्रकाश
जिनपूजाका माहात्म्य । २३०) प्राचीन कालमें, शंख पुर नामक नगरमें शंख नामका राजा था। वहाँ पर, नाम और कर्म दोनोंहीसे 'ध न द' (धन देने वाला ) नामका एक सेठ था । उसने एक बार सोचा कि लक्ष्मी हाथीके समान चंचल है, अतः वह हाथमें उपहार ले कर राजाके पास आया और उसे संतुष्ट किया । राजाकी दी हुई भूमिमें, अपने चार पुत्रोंके साथ सलाह करके, शुभलग्नमें उसने एक जिनमंदिर बनवाया। उसमें, प्रतिष्ठित बिंबोंकी स्थापना करके उस प्रासादके व्यय-निर्वाहके लिये आमदनीके अनेक मद कायम किये। उसकी पूजाके लिये अनेक पुष्प, वृक्ष, लता आदिसे अलंकृत एक सुंदर बागीचा बनवा दिया और उसके कार्यचिन्तक गोष्ठिक नियुक्त किये । इसके अनन्तर, पूर्वकृत दुष्कर्मके फलके उदयसे क्रमशः उसकी लक्ष्मी घट गई और वह कर्जदार हो गया। मानप्रतिष्ठाके म्लान हो जानेके कारण वह किसी गाँवमें जा कर रहने लगा। नगरमें जा-आ कर लड़के जो कुछ पैदा करते उसीपर गुज़र करता हुआ वह काल व्यतीत करने लगा । एक बार, जब चातुर्मासिक पर्व निकट आया तो वहाँ जानेवाले पुत्रोंके साथ वह ध न द भी शंख पुर पहुँचा । वहाँ अपने बनाये हुए प्रासादकी सीढ़ियों पर चढते, उसके उद्यानकी पुष्प चुननेवाली (मालिन) ने उसे फूलोंकी डाली भेंट की । परमानंद निर्भर हो कर उसीसे उसने जिनेंद्रकी पूजा की । रातमें गुरुके सामने अपनी दुरवस्थाकी बड़ी निंदा करने लगा। तब उन्होंने उसे कपर्दी यक्षका आराधन करनेके लिये मंत्र दिया । फिर एक कृष्ण चतुर्दशीकी रातको उस मंत्रकी आराधना करके कपर्दी यक्षको प्रत्यक्ष किया । गुरुके उपदेशानुसार उससे, चातुर्मासिक दिनके अवसर पर जो पुष्प-चतुःसरिका ( फूलकी चौसरी लड़ी ) से जिनेशकी पूजा की थी उसके पुण्यफलकी याचना की । उसने कहा कि-'एक फूलकी पूजाका पुण्यफल भी, बिना सर्वज्ञके, मैं देनेमें असमर्थ हूं'। फिर भी उस कपर्दी यक्षने, उस साधर्मिकके प्रति अतुल्य वात्सल्यभाव धारण करके, उसके घरके चारों कोनोंमें, सुवर्णपूर्ण चार कलश निधिरूपमें रख दिये, और वह तिरोहित हो गया । प्रातःकाल वह अपने घर आया और धर्मकी निंदा करनेवाले उन पुत्रोंको वह धन समर्पण किया । वे भी आग्रहके साथ पितासे उस धनलाभका कारण पूछने लगे । इसपर, उनके हृदयमें धर्मके प्रभावका आविर्भाव करनेके लिये, जिनपूजाके प्रभावसे संतुष्ट हुए कपर्दी यक्ष द्वारा, इस संपत्तिके प्राप्त होनेकी बात कह सुनाई । वे भी सम्पत्ति पा कर फिर उसी जन्मस्थान में जा कर रहे और अपने धर्मस्थानोंका व्ययनिर्वाह करने लगे । फिर विविध भाँति जिन शासनकी प्रभावना करते हुए वे विधर्मियों के मनोंमें भी जैन धर्मके प्रभावको स्थापित करते रहे।
इस प्रकार जिनपूजा संबंधी यह धनदका प्रबंध समाप्त हुआ।
श्री मेरुतुंगाचार्य विरचित प्रबंधचिन्तामणिमें, विक्रमादित्यके कहे हुए पात्रविवेचनसे ले कर जिनपूजासंबंधी धनदके प्रबंध तकका वर्णनवाला,
यह प्रकीर्ण ना म क पाँचवाँ प्रकाश समर्थित हुआ। [ इस प्रकाशकी ग्रंथसंख्या ७७४ है । समग्र ग्रंथकी श्लोक संख्या ३१५० है ]
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