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प्रबन्धचिन्तामणि
गुरुभक्ति, देशविरति, समिति, गुप्ति आदि सखियाँ बरातिन बन कर मंगल गान कर रहीं थीं; अमारि - घोषणा के पटह बज रहे थे; परिग्रह - परिमाणरूप व्रत के मिषसे याचक जनोंको यथेष्ट दान दिया जा रहा था; पापरूप कचरेको दूर हठाया जा रहा था; सद्बोध पुष्पोंसे सन्न्यायकी राजवीथियाँ सुगंधित की जा रहीं थीं; तब कन्याकी माँ अनुकंपा महादेवी ने श्री अर्हन के साक्षी रहते प्रोक्षण किया । इस प्रकार उस राजाने अहिंसाका पाणिग्रहण किया । उस समय, तारामेलक पर्व में परमानन्द हुआ । इसके बाद, नवांगवेदी महोत्सव के स्थान में, ३६ हजार श्लोक ग्रन्थपरिमाण, हे मसूरिकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र नामक शास्त्र स्थापित किया गया । वेदीके पात्र स्थापन और पाँच कपर्दक ( कोडियों ) के स्थापनकी जगह; वीस-संख्यक वीतरागस्तव स्थापित किये गये । शमी काष्ठके स्थानपर द्वादश प्रकाशात्मक योगशास्त्र ग्रन्थ स्थापित किया गया । उसके परिकर के रूपमें, हे म सूरि के अन्यान्य लक्षण, साहित्य, तर्क और इतिहास प्रमुख शास्त्रोंकी रचना हुई । मूलगुण और उत्तर गुणोंसे इस वेदिकाको दृढ़ करके, उसमें ज्ञानरूप अग्नि जलाई गई, और ' चत्तारिमंगल ' रूप इस मांगलिक सूत्रके उच्चारणसे मंगल किया गया । उस समय उस कन्या के मुखमण्डनके लिये, राजाने ७२ लाख रुपयोंकी आमदनीवाला ' रुदती कर' ( अर्थात् निःसन्तान विधवा स्त्रियोंके राज्यग्राह्य धन ) का त्याग करने रूप दान किया। उसी समय उसका पट्टबन्ध किया गया ( - उसे पट्ट महादेवी बनाया गया ), और उसके पिता के निवास - योग्य १४४४ विहार बनवाये गये । फिर हिंसा ( जो राजाकी पूर्वपत्नी थी ) अपनी सौत अहिंसाकी इस प्रकारकी उन्नतिको देख कर, अपना पराभव निवेदन करनेके लिये, अपने पिता विधाताके पास गई। बहुत दिन बाद देखनेके कारण तथा पराभवके दुःख से विरूपसी बनी हुई उसको न पहचान, पिताने उससे पूंछा कि
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सुंदरी ! तुम कौन हो ? ' ' हे तात विधाता ! मैं तुम्हारी प्रिय पुत्री हिंसा हूं ! ' ' तूं ऐसी दीनकी तरह क्यों है ? '-' पराभव के कारण । ' - ' वह ( पराभव ) किससे हुआ ? ' ' क्या बताऊं ! ' कहो न '-' हेमाचार्यके कहनेसे, उस परम गुणवान् कुमारपाल नृपतिने मुझे अपने हृदय, मुंह, हाथ. और उदरसे उतार कर, पृथ्वतिलसे निकाल दिया ॥ ९ ॥
उसकी यह बात सुन कर ब्रह्मा बोले कि - 'सत्यप्रतिज्ञ ऐसा कुमारपाल देव जो पहले तुझमें अनुरक्त हो कर भी, उस भेषधारी साधुके कथनको सुन कर, अब विरक्त हो गया है; तो फिर मैं अब तेरे लिये कोई ऐसा अच्छा पति ढूंढ निकालूँगा जो तेरा ही एकच्छत्र राज्य कर देगा । इसलिये तुम धीर धरो' - यह कह कर उसे अपने समीप रखा । अहिंसा देवीके साथ श्री कुमारपाल नृपति अपने इस जीवन-ही-में अतुलित महानन्दका अनुभव करता हुआ, चौदह वर्ष तक, सुख पूर्वक राज्य करता रहा । इसके बाद उसकी एक पहली प्रिया जो कीर्ति थी उसको देशान्तर में पठा कर, जब उसने स्वर्गको अलंकृत किया, तो उसी समय उसके प्रेमकी प्रसादपूर्ण क्रीड़ाओंका स्मरण करती हुई वह अहिंसा देवी भी, कलिमलिन जनोंके पापस्पर्शका परिहार करने की इच्छासे, उसके साथ ' सहगमन ' कर गई ।
इस प्रकार श्री कुमारपालका अहिंसा के साथ विवाह संबन्ध बतानेवाला यह परिशिष्टात्मक प्रबन्ध समाप्त हुआ ।
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