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________________ १५० ] प्रबन्धचिन्तामणि [ पंचम प्रकाश पर उस लघु वैद्यने, किसी कारणवश, उस काचकी कुप्पीको भूमिपर पटक कर तोड़ दिया। राजाके यह कहनेपर कि 'अ: यह क्या किया ?' उसने कहा - ' रसायनकी सुगंधिसे ही व्याधि भाग गई है । अब व्याधिके अभावमें इस धातुक्षयकारी औषधका रखना व्यर्थ है । आज रात्रिके अंतमें वह कृष्णच्छाया महाराजके शरीरको छोड कर कहीं दूर चली गई दिखाई दी है और इसमें खुद आप ही प्रमाण हैं। उसके इस प्रत्यय ( विश्वास) से सन्तुष्ट हो कर राजाने दरिद्रताको दूर करने वाला [ भारी] पारितोषिक उसे दिया। २२५) इसके बाद, उन सभी व्याधियोंको उस वैद्यने भूतलसे नष्ट कर दिया। तब उन्होंने जा कर स्वर्ग लोकके वैद्य अश्विनी-कुमारोंसे अपना यह पराभव वृत्तान्त कहा । वे दोनों इस वृत्तान्तसे मनमें आश्चर्य चकित हो कर नीलवर्णके पक्षीका रूप बना कर, व्याधियोंके लिये प्रतिभट जैसे लघु वा ग्भ ट के धवलगृह (मकान) की खिड़कीके नीचे वलभी (टोडे) पर बैठ कर ' कोऽरुक् ' (कौन नीरोग है ! ) ऐसा शब्द बोले । उस आयुर्वेदज्ञने अपने समीपहीमें सुने जानेवाले इस शब्दको साभिप्राय समझ कर चिर कालतक उसका विचार करके कहा२६७. अल्प शाक खानेवाला, चावल के साथ घी लेनेवाला, दूधके रसोंका व्यवहार करनेवाला, पानी ज्यादह नहीं पीनेवाला, प्रकृति के विरुद्ध - वातकारक और विदाही (ज्वलन पैदा करनेवाले) पदार्थोको न खानेवाला, अस्थिर भावसे न खानेवाला, खाये हुएके जीर्ण होने (पच जाने ) पर खानेवाला और अल्प भोजन करनेवाला · अरुक् ' अर्थात् नीरोग होता है । ऐसा सुन कर मनमें कुछ चकित हो कर वे चले गये । फिर दूसरे दिन, दूसरी वेलामें, उसी प्रकारका पक्षीका रूप बना कर, वैसा ही पुराना शब्द करते हुए, वे वैद्यके घर पर आये । फिर उनकी बातके उत्तरमें वैद्यने कहा२६८. वर्षामें जो स्थिर रहता है (अर्थात् यात्रा नहीं करता ), शरत्कालमें पेय पदार्थोका सेवन करता है, हेमन्त और शिशिरमें खूब भोजन करता है, वसन्तमें मदमस्त बनता है और ग्रीष्ममें [दिनको ] शयन करता है, हे पक्षी, वही पुरुष नीरोग होता है। ऐसा कहनेपर वे फिर चले गये। तीसरे दीन, योगीका रूप बना कर उसके घर गये और वे बोले - २६९. हे वैद्य, वह कौनसी ऐसी औषधि है जो न पृथ्वीमें उत्पन्न होती है, न आकाशमें; न बाजारमें मिलती है, न पानीमें पैदा होती है; और फिर सर्व शास्त्रोंको सम्मत है । इसपर वैद्यने कहा२७०. पृथ्वी या आकाशमें न होनेवाली, पथ्य तथा रसवर्जित ऐसी महौषधि पूर्वाचार्यों द्वारा बताई हुई लंघन ( उपवास ) रूप है । इस प्रकार अपने अभिप्रायके ठीक अनुकूल प्रत्युत्तर पा कर वे दोनों वैद्य चमत्कृत हुए और फिर प्रत्यक्ष हो कर यथाभितम वर प्रदान कर अपने स्थानपर चले गये । इस प्रकार वैद्य वाग्भटका यह प्रबंध समाप्त हुआ। गिरनार तीर्थ के निमित्त श्वेताम्बर-दिगम्बरमें लड़ाई । २२६) धाम ण उ लि ग्राममें वसनेवाला धारा नामक कोई नैगम (व्यवहारी), जो अपनी लक्ष्मीसे वैस्रवण देवकी भी स्पर्धा करनेवाला था, संघाधिपति हो कर, प्रचुर द्रव्यका व्यय करके जीवलोकको जिलाता हुआ, अपने पाँच पुत्रोंके साथ, श्री रैव त क गिरि की उपत्यका ( तलहट्टी) में जा कर निवास किया। दिगंबर संप्रदायके भक्त ऐसे गिरि नगर के राजाने, उसे श्वे तां ब र भक्त समझ कर यात्रासे अटकाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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