________________
प्रकरण २२१-२२४ ]
प्रकीर्णक प्रबन्ध
[ १४९
वेश्याने सब वृन्तान्त कहा और स्थान - पान - भोजन आदिसे उसे सन्तुष्ट किया । फिर वह राजसभामें गया। वहां पर पाणिनि व्याकरण की यथावस्थित व्याख्या कर बतानेपर राजा तथा अन्य पंडितोंने उसका बड़ा सत्कार किया । वहाँ जो कुछ पुरस्कार रूपमें उसे मिला वह सब उसने उस वेश्याको समर्पण कर दिया ।
पा
२२३) फिर उसके क्रमशः चारों वर्णोंकी चार स्त्रियाँ हुईं। इनमें से क्षत्रियाणी के गर्भ से कि दिव्य तथा शूद्रा के गर्भ से भर्तृहरि पुत्र हुआ । हीनजातिका होनेके कारण भर्तृहरिको रज्जुके संकेत से भूमिगृह में बैठा कर गुप्त वृत्तिसे पढ़ाया जाता था । अन्य तीनों लड़कों को प्रत्यक्ष ( पासमें बैठा कर ) पढ़ाया जाता था । उन्हें इस तरह पढाते हुए -
२६४. दान भोग और नाश - द्रव्यकी ये तीन गति हैं । [ और जो न देता है न भोग करता है
उसके द्रव्यकी तीसरी ही गति ( नाश ) होती है । ]
यह जब पढ़ाया गया तो भर्तृहरि ने रज्जुका संकेत नहीं किया और उन तीनों प्रत्यक्ष छात्रोंने आगे के उत्तरार्धका पाठ पूछा । तब कुपित होकर उस उपाध्यायने कहा - ' अरे वेश्यापुत्र, अभी तक रस्सीको क्यों नहीं हिलाता ? तब वह प्रत्यक्ष आ कर कुछ कर शास्त्रकी निंदा करता हुआ कहने लगा -
,
२६५.
सौ सौ प्रयास करके प्राप्त किये हुए और प्राणोंसे भी अधिक मूल्यवान् ऐसे धनकी एक दान ही गति हो सकती है । अन्य तो [ गति नहीं ] विपत्ति है 1
इस पाठसे [ उन सबने ] वित्तकी फिर एक ही गति मानी । उस भर्तृहरि ने वैराग्यशतक आदि अनेक प्रबंध बनाये ।
इस प्रकार भर्तृहरिकी उत्पत्तिका यह प्रबंध समाप्त हुआ ।
*
वाग्भट वैद्यका प्रबंध |
२२४) धारानगरी में, मालव मण्डल के भूषणरूप श्री भोजराज का एक आयुर्वेदज्ञ वैद्य वाग्भट नाम था । उसने आयुर्वेदोक्त कुपथ्य करके, उसके प्रभावसे पहले रोग उत्पन्न किया और फिर सुश्रुत कथित पथ्य औषधोंसे उसका निग्रह किया । पानीके बिना कितने समय तक जिया जा सकता है इस बातकी परीक्षाके लिये जल छोड़ दिया। तीन दिनके बाद प्याससे तालु और ओठ सूख गये । तब उसने इस प्रकार कहा
२६६. कहीं गर्म, कहीं ठंड़ा, कहीं गर्म करके ठंडा किया हुआ और कहीं औषधके साथ [ इस प्रकार पानी सब हालत में दिया जाता है ] पानी कहीं भी मना नहीं किया गया है ।
इस प्रकार पानी के सत्कारका उसने यह वाक्य पढ़ा । उसने अपना अनुभूत 'वाग्भट' नामक ग्रंथ
बनाया । उसका जामाता जो लघु बाह्रड कहलाता था वह भी एक समय, अपने श्वसुर ऐसे उस वृद्ध बा ह ड के साथ राजमंदिरमें गया । सबेरे ही श्री भोजराज के शरीरकी देख भाल कर वृद्ध बाहड ( वाग्भट ) ने कहा कि – ' आज आपका शरीर नीरोग है ' । तो यह सुन कर लघु बाहडने मुंह मरोडा । तब श्री भोज के उसका कारण पूछने पर उसने कहा कि - ' आज स्वामीके शरीर में, रात्रिके शेषमें राजयक्ष्माका प्रवेश हुआ है, जो कृष्णच्छायासे सूचित होता है ' । इस प्रकार देवता के आदेश से अतीन्द्रिय भाव बतला देनेके कारण राजा उसके कला-कलापसे चमत्कृत हुआ और व्याधिका उससे प्रतीकार पूछा । तब उसने तीन लाखके मूल्य से बननेवाले रसायनका प्रयोग बताया । ६ महीनेके बाद उतना द्रव्य व्यय करके वह रसायन सिद्ध किया गया और सायंकाल काचकी कुप्पीमें भर कर उस रसायनको राजाके बिस्तर के पास रख दिया । सबेरे देवतार्चन के बाद राजाने जब वह रसायन खाना चाहा तो उस रसायनकी पूजा - पुरस्कार आदि सब सामग्री तैयार की गई ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org