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प्रकरण २०५-२०८ ]
प्रकीर्णक प्रबन्ध
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पुण्यसार राजाका वृत्तांत । २०७) कान्ती पुरी में, प्राचीन कालमें, कोई पुराण नृपति, निरभिमान भावसे राज्य कर रहा था। एक बार वह राजपाटिकामें जानेके लिये निकला, तो उसके पीछे पीछे उसका परम-मित्र म ति सागर नामक महामात्य भी चला । रास्तमें घोड़ा बिगड़ उठा और वह राजाको दूर ले भगा । साथकी चतुरंग सेना क्रमशः दूर दूर रह जाने लगी। पर अत्यंत वेगवाले घोड़ेपर चढ़ कर वह मंत्री उसके पीछे पीछे बहुत दूर तक चला गया । कितनी ही दूर चले जानेपर, राजा मार्ग लाँघनेके श्रमसे बिल्कुल थक गया और सुकुमारताके कारण रुधिरके दबावसे वहीं मर गया। मंत्रीने उसका अन्तकृत्य करके, उसके घोड़ेको और उसके वेशको साथ ले आ कर सायंकाल नगरमें प्रवेश किया। सीमान्तमें रहे हुए शत्रु राजाओंके भयसे राज्यको निर्विघ्न रखनेकी इच्छासे, उस राजा-ही-की उम्रके और रूपके जैसे एक कुम्हारको राजाका वह पोशाक पहना कर और उसी घोड़ेपर चढ़ा कर महलमें प्रवेश कराया । फिर रानीको सारा हाल बता कर, सचिवने पुण्य सार नाम दे कर उसीको राजा बनाया । इस प्रकार कितनाक काल बीत जानेपर, वह मंत्री सेनाका बड़ा समूह ले कर किसी शत्रु राजाके ऊपर चढ़ाई ले गया और अपने एक खूब विश्वस्त सहायकको राजाकी सेवामें रख गया । बादमें वह राजा निरंकुश हो कर, वेश्यापतिकी तरह, स्वैर विहार करता हुआ समस्त कुम्हारोंको अपने पास बुला और मिट्टीके हाथी, घोड़े, बैल आदि बना कर उनके साथ चिर काल तक खेला करने लगा। ऐसा करनेपर समस्त राजलोक उसकी अवहेलना करने लगे जिसको सुन कर स्कंधावारसे ( लड़ाईके मैदानसे ) कुछ नौकरोंको साथ ले कर मंत्री वहाँ आया और राजासे इस प्रकार बोला कि-'यदि अपने स्वभावकी चल-विचलताके कारण, तुम उस कुम्हारपनकी बातको न भूल कर किसी मर्यादाको नहीं मानोगे तो मैं तुम्हें देशसे निकाल कर किसी अन्य कुम्हारके बालकको राजा बना दूंगा'। उसकी इस उक्तिसे क्रुद्ध हो कर राजा बोला-'अरे, कौन है यहाँ ?' उसके ऐसा कहते ही वे मिट्टीके पुतले सजीव हो उठे और मंत्रीको चिपट पड़े। इस असंभव जैसे महान् आश्चर्यको देख कर और राजाके प्रकट प्रभावसे विस्मित हो कर मंत्री उसके चरणोंपर गिर पड़ा और अपनेको छुड़ानेकी अभ्यर्थना करने लगा। फिर राजाके वैसा ही करने (छुड़ा देने ) पर भक्ति-पूर्वक मंत्रीने कहा'आपको साम्राज्य देनेमें मैं निमित्त मात्र हूँ। आपके पुण्यप्रभावसे पुतले सचेतन हो कर इस प्रकार आज्ञाकारी हो रहे हैं, सो इसमें पूर्वजन्मके कर्म ही कारण हैं; और इसलिये आपका यह जो पुण्य सार नाम है वह सार्थक है।
इस प्रकार यह पुण्यसारका प्रबंध समाप्त हुआ।
कर्मसार राजाका प्रबन्ध । २०८) प्राचीन कालमें, कुसु म पुर नगरकां नं दि वर्धन नामक राजकुमार, देशान्तर भ्रमणके कौतुकसे माता-पितासे बिना पूछे ही अपने छत्रधरके साथ चल पड़ा । यदृच्छासे घूमता हुआ, एक प्रातः कालमें, किसी गाँवमें जा पहुँचा। वहाँ, पुत्रहीन राजा मर गया था, इससे सचिवोंने अभिषिक्त करके पट्टहस्तीको किसी नये राजाकी तलाशमें सारे नगरमें घुमाया । संयोगवश वह वहांपर आया और उस निकटस्थ नृप कुमारको, दुःस्वप्नकी नाई भूल कर, ससंभ्रम उस हाथीने छत्रधरका अभिषेक किया। प्रधानोंने बड़े महोत्सवके साथ उसको नगरमें प्रवेश कराया । उसने राजकुमारको भी वैसे ही ठाठके साथ अपने साथ ले कर महलमें प्रवेश किया । बादमें-' मैं राजलोकका स्वामी हूं; लेकिन तुम मेरे स्वामी हो' इस प्रकारके अन्तरंग वचनोंसे वह उस राजकुमारकी आराधना करता रहा। पर वह राजा राजगुणोंके अयोग्य था और बेहद बेवकूफ था । वर्णाश्रम
धर्मके पालनके परिश्रममें अनभिज्ञ और प्रजाका पीड़क हो कर ज्यों ज्यों वह राज्य करता था त्यों त्यों, शंकरके Jain Educat३५-३६onal
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