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________________ १३८ ] प्रबन्धचिन्तामणि [पंचम प्रकाश शिरमें रहे हुए चंद्रमाकी तरह, वह प्रतिदिन क्षीण होता जाता था । उस कुमारको वैसा देख कर, किसी समय राजाने दुर्बलताका कारण पूछा तो उसने कहा कि-' दुर्बुद्धिके कारण तुम जो प्रजाको पीड़ा दे रहे हो यह अत्यन्त अनुचित कर्म है और इस कारण मैं कृश होता जा रहा हूं'। २४२. जिसे मूल्के बीच वास करना पड़े तथा जिसके स्वामिके कानोंके पास दुर्जनोंकी जीभ लगती हो, उसका यदि जीवन बना रहे तो उसे ही लाभदायक समझना चाहिए; क्षीण होनेमें तो विस्मय ही काहेका। सो मैंने इस गाथाके अर्थको सत्य कर बताया है। उसके इस कथनके अनन्तर राजाने कहा कि-' इस पापनिरत प्रजाके अपुण्योदयने ही तो, निश्चय करके भविष्यमें इसको पीड़ित करनेके लिये, मुझे राजा बनाया है । यदि विधाता इस प्रजाके भाग्यमें परिपालना लिखता तो उस समय पट्ट हस्ती तुम्हारा ही अभिषेक करता।' उसकी इस उक्ति और युक्ति रूप औषधोंसे उस कुमारका वह रोग दूर हो गया और वह शरीरसे पुष्ट होने लगा। इस प्रकार यह कर्मसार प्रबंध समाप्त हुआ। राजा लक्ष्मणसेन और उमापतिधरका प्रबंध । २०९) गौडदेशकी लखणावती नगरीमें लक्ष्मण से न नामक राजा अपने उ मा पतिधर नामक सर्वबुद्धिनिधान ऐसे सचिवके साथ, सारी राज्य व्यवस्थाका विचार करते हुए, राज्य करता था । बादमें वह, मानों अनेक मातंग (हाथी ) के सैन्यके संगसे मदान्धता धारण करके, किसी वेश्याके संगरूप कलङ्कपंकमें डूब गया । उ मा पति धर ने यह व्यतिकर जाना तो, प्रकृतिसे क्रूर होनेके कारण स्वामीको बेकाबू समझ कर, प्रकारान्तरसे उसे समझानेके लिये, उसने सभामंडपके भारपट्टपर, गुप्त-भावसे इन कविताओंको लिख दिया२४३. हे जल ! शीतलता तो तुम्हारा ही गुण है, और फिर तुम्हारी स्वाभाविकी स्वच्छताकी तो बात ही क्या कही जाय -तुम्हारे ही स्पर्शसे अन्य अपवित्र वस्तुयें पवित्र होती हैं । इससे बढ़कर और तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है कि तुम्हीं तो शरीरधारियोंके जीव हो । फिर अगर तुम्ही नीच पथसे जाते हो तो तुम्हें रोकनेमें कौन समर्थ है ? २४४. हे शिव ! तुम अगर छोटे बैल पर चढते हो तो उससे दिग्गजोंकी क्या हानि है ? तुम अगर साँपोंका आभूषण पहनते हो तो इससे सोनेका क्या नुकसान है ? अगर अपने शिरपर इस जड़ किरण चन्द्रमाको धारण करते हो तो उससे त्रैलोक्यके दीपक सूर्यका क्या बिगड़ता है ? तुम जगत्के ईश हो तो फिर हम तुम्हें क्या कहें ? २४५. यद्यपि कटे हुए ब्रह्मशिरको वह धारण करता है, यद्यपि प्रेतोंसे उसकी मित्रता है, यद्यपि रक्ताक्ष हो कर मातृकाओंके साथ वह क्रीडा करता है, यद्यपि स्मशानमें वह प्रीति रखता है और यद्यपि सृष्टि करके वह उसका संहार कर देता है, तो भी, मैं उसमें मन लगा कर भक्ति-पूर्वक सेवा करता हूँ। क्यों कि त्रिलोक शून्य है और वह जगतका एक-मात्र ईश्वर है। २४६. इस महान् प्रदोषकालमें तुम्ही एक मात्र राजा ( चंद्र ) हो, और इसी लिये तो क्या कमलोंकी लक्ष्मीको बंद करके कुमुदोंकी श्रीको बढ़ा नहीं रहे हो ? पर इसमें जो ब्रह्माका निवास है और पुष्पोंकी पंक्तिमें इसकी जो प्रतिष्ठा है उसको दूर करनेवाले तुम कौन हो ? क्यों कि वह तो स्वयं विधाता भी करनेमें समर्थ नहीं है | Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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