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________________ १३६ ] प्रबन्धचिन्तामणि [पंचम प्रकाश गिरि पर बानरकी स्त्री थी। वहां पर किसी एक वृक्षकी, एक शाखासे दूसरी शाखापर कूदते हुए, कोई अगम्य शल्यसे तालुमें विद्ध हो कर मैं मर गई । उसीके नीचे कामिक नामक तीर्थका कुण्ड था जिसमें मेरा धड़ गिर पड़ा । उस तीर्थके पुण्य-प्रभावसे मेरा यह शरीर तो मनुष्यका हो गया; किन्तु वह मेरा मस्तक अभी तक वैसे ही पड़ा है इसलिये मैं बानरके मुखवाली हुई हूं। श्री पुंज ने यह सुन कर अपने विश्वसनीय आदमियोंको वहाँ भेज कर उसके शिरको कुण्डमें डाल देनेके लिये आदेश दिया। उन्होंने जा कर चिर कालसे उसी प्रकार पड़े हुए मुखको वैसा ही देखा और फिर उसे कुण्डमें डाला । तब वह श्री मा ता मनुष्यके मुखवाली हो गई। फिर माता-पिताकी अनुज्ञा ले कर अर्बुदजितनी संख्यावाले गुणोंकी धारक वह, उस अर्बुद पर्वत पर जा कर तपस्या करने लगी। एक बार, एक आकाशचारी योगीने उसे देखा तो वह उसके सौन्दर्यसे हृत-हृदय हो कर आकाशसे नीचे उतरा और प्रेमालाप-पूर्वक उससे कहने लगा कि 'तुम मुझसे ब्याह क्यों नहीं कर लेती। उसके ऐसा पूछनेपर वह बोली कि-' इस समय रात्रिका पहला पहर व्यतीत हुआ है; चौथे पहरमें-जब तक मुर्गा न बोल उठे तब तकमें-अगर किसी विद्याके बलसे तुम बड़ी सुंदर ऐसी बारह पद्या ( पत्थरकी सीढियाँ ) बनवा दो तो मैं तुमको वर लूंगी। उसके ऐसा कहनेपर, तुरन्त ही उस कार्यके लिये उसने अपने चेटकोंके झुंडको नियुक्त किया और दो ही पहरमें वे सब पद्यायें बनवा दी। पर इवर श्री मा ता ने उतनेहीमें मुर्गेकी बनावटी आवाज कर दी। उसने आ कर कहा कि [पया तैयार है इससे अब] 'विवाहके लिये तैयार हो जाओ' तो इसपर श्री मा ता ने कहा कि 'जब वे बन रही थीं तभी मुर्गेकी आवाज हो गई थी। तो उसने कहा 'वह तो तुम्हारी मायाजालके बनाये हुए बनावटी मुर्गेकी ध्वनि थी; सो इसको कौन नहीं जानता'। ऐसा उत्तर देते हुए, नदीके किनारे अपनी बहनके द्वारा विवाहका उपहार उपस्थित कराया। श्री मा ताने 'सब विद्याओंका मूल जो यह त्रिशूल है इसे यहीं छोड़ कर विवाहके लिये तैयार रहो' ऐसा कह कर उसे वहां बुलाया। प्रेमके वशमें हृतचित्त हो कर वह वैसा ही करके उसके समीप आया। श्री मा ता ने बनावटी कुत्ते बना कर उसके पैरों पर छोड़ दिये और हृदयमें त्रिशूलका आघात करके उसे मार डाला । इस प्रकार निःसीम शीलके साथ उसने अपनी सारी जिन्दगी बिताई । उस अखण्ड शीलाकी मृत्युके बाद, श्री पुञ्ज राजाने वहाँपर शिखरके बिनाका एक प्रासाद बनवाया । क्यों कि ६-६ महीनेके बाद, उस पर्वतके अधोभागमें रहनेवाला अर्बुद नाग जब हिलता है तो वह पहाड़ काँपने लगता है। इसलिये वहाँके सभी प्रासाद शिखर रहित [ बनाये जाते ] हैं। इस प्रकार श्री पुञ्जराज और उसकी पुत्री श्रीमाताका यह प्रबन्ध समाप्त हुभा। चौडदेशके गोवर्धन राजाकी न्यायप्रियताका उदाहरण । २०६) चौ ड देश में एक गोवर्धन नामक राजा हुआ । उसके वहाँ, सभामंडपके सामनेके खंभेमें न्याय घंटा बंधी हुई थी जो न्याय करानेके प्रार्थीजनोंके द्वारा बाजाई जा कर निनाद किया करती। एकबार उसके इकलौते कुमारके रथारूढ़ हो कर कहीं जाते समय, रास्तेमें अज्ञातभावसे एक गौका बछड़ा मर गया । उसकी माता गायने, आँखोंसे अजस्र आँसू बर्षात हुए, अपने पराभवके प्रतीकारार्थ सींगोंसे वह न्याय-घंटा बजाई । अर्जुनके समान कीर्तिवाले उस राजाने, घंटाका झंकार सुन कर, गायका समूल वृत्तान्त जाना और अपने न्यायकी प्रतिष्ठाके लिये, प्रातःकाल रथारूढ हो कर, उस अपने एकमात्र प्रिय पुत्रको, उसी रास्तेमें रख कर, उस धेनुके समक्ष उसपर अपना रथ घुमाया। उस राजाके ऐसे सत्त्व और परम भाग्यसे रथका चक्र (पहिया) ऊपर हो उठा और वह कुमार नहीं मरा । इस प्रकार यह गोवर्धननृपप्रबंध समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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