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प्रबन्धचिन्तामणि
[पंचम प्रकाश किसी पुरुषके साथ इस प्रकार बात-चीत करने लगा कि-'हमारे स्वामीको अच्छी सलाह देनेमें कोई चूहा भी नहीं दिखाई देता; जिससे यह अश्वपति महीमहेन्द्र ( राजा ) एक मामूली बनियेके कहनेसे-जिसका न तो कोई कुलशील ही मालूम है और न यही मालूम है कि वह कोई अच्छा आदमी है या बुरा; और फिर जो नामसे भी और कर्मसे भी रंक बना हुआ है-सूर्यपुत्र शि ला दित्य के प्रति चल पड़े हैं !' उसकी इस यथार्थ पथ्य बातको सुन कर, चित्तमें कुछ विचार करके, राजाने उस दिन आगे प्रयाण करनेमें विलंब किया । तब, उस सशंक रंकने, इस बातको निपुणभावसे जान कर, उस छत्रधरको काञ्चन-दान दे कर सन्तुष्ट किया । तब फिर दूसरे दिन [ वही छत्रधर बोला ] चाहे विचार करके या बिना बिचारे ही यह राजा प्रयाण करके चल पड़ा हो; पर अब · सिंहके उठाये हुए पैरकी नाई ' इस कहावतके अनुसार आगे चलनपर ही इसकी शोभा है । क्यों कि
२३९. खेल ही में जिसने हाथियोंका दलन किया है उस सिंहको, लोग चाहे मृगेन्द्र कहें चाहे मृगारि,
_ ये दोनों बातें सिंहके लिये तो लज्जाजनक ही हैं।
और फिर इस पराक्रमशालीके सामने ठहर भी कौन सकेगा ?' उसकी ऐसी बातोंसे उत्साहित हो कर, भेरीके निनादसे पृथ्वी और आकाशके अंतरालको बधिर करते हुए उस म्लेच्छराजने आगे प्रयाण किया । इधर उस अवसरपर व ल भी स्थित चन्द्रप्रभका बिंब, अम्बा और क्षेत्रपालके साथ, अधिष्ठायक देवताके बलसे आकाश मार्ग द्वारा शि व पत्त न ( सो म नाथ )की भूमिको प्राप्त हुआ। रथपर अधिरूढ श्री वर्धमानकी अनुपम प्रतिमाने, अदृश्य भावसे, अधिष्ठातृ देवताके बलसे रास्तेमें चलते हुए आश्विनी ( आश्विन मासकी) पूर्णिमाके दिन श्री मा ल पुर को अलंकृत किया । अन्य अतिशयवाली देवमूर्तियोंने भी यथोचित भूभागको अलंकृत किया । उस नगरकी अधिष्ठातृ देवताने श्री वर्धमा न सूरिके साथ, उत्पातज्ञापनके समय [ इस तरहकी बातें की ]२४०. ' हे देवीके सदृश सुंदरि, तुम किस कारणसे रो रही हो सो बताओ'; ' हे भगवन् , मैं
व ल भी पुर का भंग देख रही हूँ । इसका प्रमाण यह है कि आपके साधु लोग भिक्षामें जो दूध पायेंगे वह तब रक्त हो जायगा । [ फिर यहाँसे जा कर ] मुनियोंको उसी स्थानपर रहना
चाहिये जहाँ पानी भी दूध हो जाय ' । इसके बाद, जब वह उत्पात हुआ और नगरीके पास म्लेच्छ सेना आ गई, तो देशभंगके पापपंकमें फसे हुए रंक ने धन दे कर, पंच शब्दवाले वाद्योंके बजानेवालोंको अच्छी तरह फोड लिया। जब शिला दित्य घोड़ेपर चढ़ने लगा तो उन्होंने ऐसा प्रतिशब्द किया, जिससे वह घोड़ा, गरुड़की भाँति आकाशमें उड़ गया । यह देख कर राजा शि ला दित्य किंकर्तव्यमूढ हो रहा और उन म्लेच्छोंने उसे मार डाला । फिर तो म्लेच्छोंने खेल ही में वल भी शहरको तहस-नहस कर दिया ।
२४१. विक्र मा दित्य के समयसे ३७५ वर्ष बाद, व ल भी न गरी का यह भंग हुआ। इस प्रकार शिलादित्य राजाकी उत्पत्ति, रंककी उत्पत्ति और उसके द्वारा किये गये
वलभी-भंगका यह प्रबन्ध समाप्त हुआ।
श्रीपुंजराजकी उत्पत्ति । २०४) श्री र न मा ल न ग र में रत्न शेख र नामक राजा हुआ। वह किसी समय, दिग्विजयसंबंधी यात्रासे वापस लौट कर अपने नगरमें आया। प्रवेशके महोत्सवके समयमें, बाजारकी शोभाकी सजावट देखता हुआ जब जा रहा था, तब एक हाटमें काठके पात्र (कठौत) सहित कुद्दालको रखे हुए देखा । महलमें प्रवेश करने के बाद जब महाजन लोग उपहार ले कर आये तो उनसे पूछा कि 'आप सब लोग सुखी तो हैं !' तो उन्होंने कहा
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