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________________ प्रकरण २००-२०३] प्रकीर्णक प्रबन्ध । [१३३ गुरुने उसे सूरिपद दिया। तबसे उनका नाम हुआ श्री मल्ल वा दी सूरि । गणभृतके समान वे प्रभावक हुए। अतएव श्री संघने, नवाङ्गवृत्तिकार श्री अभ य देव सूरिने जिसको प्रकट किया उस स्तम्भ न क तीर्थ की विशेष उन्नतिके लिये, उनको चिन्तायक ( व्यवस्थापक ) रूपमें नियुक्त किया। इस प्रकार यह मल्लवादि प्रबंध समाप्त हुआ। वलभी नगरीके विनाशकी कथा । २०२) म रु म ण्ड ल के पल्ली ग्राम में का कू और पाता क नामक दो भाई रहते थे। उनमें जो छोटा था वह धनवान् था और जेठा उसीके घर नौकर था । किसी समय, बर्षा ऋतुके निशीथ कालमें, दिनभरमें किये हुए कामसे थक कर का कू सोया हुआ था। छोटेने कहा-'भैया, अपनी [खेतकी ] क्यारियोंमें पानी भर गया है, उनकी मेंड टूट गई है और तुम निश्चिंत बैठे हो ' यह कह कर उसे फटकारा । वह उसी समय, बिछौना छोड़ कर और कँधेपर कुद्दाल रख कर, अपने नसीबकी निंदा करता हुआ जब वहाँ पहुँचा, तो देखा कि कई मजदूर टूटी हुई मेंडोंकी मरम्मत कर रहे हैं। उन्हें ऐसा करते देख उसने पूछा कि ' तुम लोग कौन हो !' उन्होंने कहा कि 'आपके भाईके चाकर हैं।' इसपर उसने पूछा कि ' भला मेरे भी कोई चाकर कहीं है ?' तो उन्होंने कहा कि 'वल भी नगरी में हैं। वह फिर अवसर पा कर अपने सर्वस्वको गहड़में बाँध कर, उसे सिरपर उठा कर, व ल भी में आया। वहाँ सदर दरवाजेके समीपवर्ती आभीरों के पास निवास करने लगा । उन्होंने अत्यन्त गरीब समझ कर उसे 'रंक' कहना शुरू किया । रंक घासकी झोंपड़ी बना कर, और घासहीसे उसे छा कर रहने लगा। उसी समय कोई कार्पटिक (जोगी) कल्प-पुस्तकके आधारसे, रैवत शैलसे एक तुंबेमें सिद्धरस ले कर, मार्ग अतिक्रम करता हुआ [ चला आ रहा था । अचानक ] उस तुंवेमेंसे ' काकूय तुम्बडी ' ( काकूकी तुम्बड़ी) इस प्रकारकी अशरीरिणी वाणी हुई; जिसे सुन कर वह बड़ा विस्मित हुआ; और फिर डरता हुआ उस छिपे हुए बनियेके घरमें, यह सुन कर कि वह एक रंक है, निश्शङ्क-भावसे उस रसवाले तुंबेको थातीके रूपमें रख दिया । वहाँसे वह सो मे श्वर की यात्राके लिये चला गया। एक दिन [रंकने ] किसी पर्वके अवसरपर देखा कि, पाक करनेके लिये चूल्हेपर चढ़ाई हुई कड़ाहीमें, तुंबेसे निकले हुए रसके गिरनेसे वह सोनेकी हो गई है । इससे उस बनियेने मनमें निर्णय किया कि यह सिद्धरस है । तब उसने उस तुबेके साथ अपने घरका सब कुछ सामान अन्यत्र पहुँचा कर घरको आग लगा कर भस्म कर दिया । नगरके दूसरे दरवाजेपर बड़ा मकान बनवा कर वहीं रहने लगा। एक बार, किसी घी बेंचनेवालीसे घी खरीद रहा था। खुद ही तौल करते हुए उसने देखा कि उसमेंसे घी खूटता ही नहीं है । नीचे देखा तो घीके पात्रके नीचे कृष्ण चित्रक [ लता ] की कुण्डलिका नजर आई । फिर किसी प्रकार छल करके उसे उठा लिया और इस प्रकार उसे चित्र क सिद्धि प्राप्त हो गई । इसी तरह अगणित पुण्यके प्रभावसे उसे सुवर्णपुरुषकी सिद्धि भी प्राप्त हुई । इस प्रकार तीनों प्रकारकी सिद्धिसे कोटि-कोटि संख्या धन एकत्र करके भी, उसने अत्यन्त कृपणतावश, किसी सत्पात्र या तीर्थमें उदारता पूर्वक उसका खर्च करना तो दूर रहा, बल्कि सब लोगोंके सर्वस्वके हरण करनेकी इच्छासे, उस लक्ष्मीको सकल विश्वके लिये कालरात्रिके समान प्रकट किया। २०३) ऐसेमें, राजाने अपनी लड़कीके लिये, उसकी लड़कीकी रत्नखचित सुवर्णकी कंघीको जबर्दस्ती उससे छिनवा ली । इससे विरोधी हो कर वह स्वयं म्लेच्छ मण्डलमें गया और व ल भी के राज्यका नाश करानेके लिये, करोडोंका सोना दे कर, वहाँके बलवान राजाको देशपर चढा लाया। उस (रंक) के द्वारा अनुपकृत, उस राजाके एक छत्रधरने, रात्रिके शेष भागमें, जब कि राजा सुप्त-जाग्रत अवस्थामें था, पहलेसे ही ठीक किये हुए, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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