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१३२ ] प्रबन्धचिन्तामणि
[पंचम प्रकाश राजा शिलादित्य और मल्लवादी सूरिका प्रबन्ध । २००) खेड़ा नामक महास्थानमें, दे वा दित्य नामक ब्राह्मणकी अति रूपवती बालविधवा सुभ गा नामक पुत्री, प्रातःकाल सूर्यको अर्घ्यकी अञ्जलि दान किया करती थी। तब, अज्ञातरूपसे सूर्यसे उसका संयोग हो गया और वह भोगरूप हो कर उससे उसको गर्भ रह गया। माँ बापने किसी तरह इस असमंजस कार्यको जब जाना तो उसे कुछ कह-सुन कर अपने स्वजनोंद्वारा वल भी नगरीके पास छुड़वा दिया । वहाँ उसको पुत्र पैदा हुआ, जो क्रमशः बड़ा हो कर, समवयस्क शिशुओंके साथ खेलते समय, इस प्रकार अपमानित किया जाने लगा कि, वह बिना बापका है । तब, मौके पास आ कर उसने अपने पिताके बारेमें पूछा तो उसने कहा कि 'मैं कुछ नहीं जानती'। इससे अपने जीवनसे विरक्त हो कर उसने मर जाना चाहा, तो फिर सूर्यने प्रत्यक्ष हो कर हाथमें कंकड़ दे कर उसकी सान्त्वना की। उन्होंने कहा कि-'तुम्हारी मातासे सम्पर्क करनेवाला मैं सूर्य तुम्हारा पिता हूँ। यह कंकड़ अगर अपने किसी पराभव-कारीपर फेंकोगे तो शिलारूप हो कर उसको लगेगा; पर किसी निरपराधको मारोगे तो फिर तुम्हारा ही अनर्थ करेगा। यह कह कर सूर्य तिरोधान हो गये। फिर अपने कितने एक पराभवकारियोंको मारता हुआ वह 'शि ला दि त्य' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध हुआ । उस नगरके राजाने उसकी परीक्षा करनी चाही । तो उसी शिलासे उसे मार कर वह स्वयं राजा बन गया । सूर्य नारायणके प्रसादसे प्राप्त ऐसे अश्वपर चढ़ कर वह सदैव आकाश-चारीकी नाई स्वेच्छया विहार करता हुआ अपने पराक्रमसे दिगन्तको आक्रान्त कर रहा । फिर चिर कालतक राज्य करके, जैन मुनियोंके संसर्गसे उसने सम्यक्त्व रत्नको प्राप्त किया और श्री शत्रु ज य तीर्थकी अपरिमित महिमाको जान कर उसका जीर्णोद्धार किया।
बौद्धों और जैनोंमें वाद-विवाद । २०१) एक बार, उस शिला दित्य के सभापतित्वमें, बौद्धों और [जैन ] श्वेतांबरोंने परस्पर इस शर्तपर शास्त्रार्थ किया कि-जो [ पक्ष ] पराजित होगा उसको देश-त्याग करना पडेगा । श्वेतांबरोंके पराजित होनेपर शि ला दित्य ने उन सबको अपने देशसे निकाल दिया; पर अपरिमित गुणवान् ऐसे उसके भानजे मल्ल ना म क क्षुल्लकको उपेक्षा दृष्टिसे देखते हुए बौद्धोंने उसे वहीं रहने दिया । और इस प्रकार अपनेको विजयी मानते हुए वे शत्रुज य तीर्थपरके श्रीयुगादि देवको बौद्ध रूपसे पूजने लगे। क्षत्रिय कुलमें उत्पन्न होनेके कारण उस मल्ल के दिलमें वह वैरभाव बस रहा, और वह उसका प्रतीकार सोचता रहा । जैन दर्शन (आचार्यो) के अभावमें उन्हींके पास वह अध्ययन करने लगा और दिन रात उसीमें चित्त लवलीन रखने लगा । एक बार, बड़ी गर्मीकी अर्द्ध रात्रिको, जब समस्त नागरिक लोग नींदसे आँखें बंद किये हुए थे, वह दिनमें अभ्यस्त शास्त्रको जोर-जोरसे याद करने लगा। उसी समय आकाशमार्गसे जाती हुई श्री भारती देवीने पूछा कि-' मीठे क्या हैं ?' उसने चारों
ओर देख कर, बोलनेवालेको न पा कर उत्तर दिया ' वल्ल ' । फिर ६ महीनेके बाद उसी समय लौटती हुई वाग्देवीने फिर पूछा ' किसके साथ ? '; तब पुरानी बातको स्मरण करके उसने प्रत्युत्तर दिया कि ' घी और गुड़के साथ ' । उसकी स्मरण रखनेकी इस अद्भुत शक्तिसे चमत्कृत हो कर [ भारतीने ] आदेश दिया कि 'वर माँगो' । उसने इस आशयकी याचना की कि ' सौगतों ( बौद्धों ) को पराजित करनेके लिये किसी प्रमाण शास्त्रके देनेकी कृपा करो।' इसपर भारतीने 'नय-चक्र' ग्रन्थ अर्पण करके उसे अनुगृहीत किया। इसके बाद भारतीके प्रसादसे तत्त्व समझ कर शिलादित्य की अनुज्ञासे, बौद्धोंके मठमें ' तृणोदक ' फेंक कर, राजसभामें पूर्वोक्त शर्तके साथ उनसे शास्त्रर्थ किया। जिसके कण्ठपीठमें वाग्देवता अवतीर्ण हुई थी ऐसे उस श्री मलने शीघ्र ही उन्हें निरुत्तर कर दिया । बादमें राजाज्ञासे उन सब बौद्धोंको देशमेंसे निकाला गया और जैनाचार्योको बुलाया गया । इस प्रकार बौद्धोंको जीतने के बाद वह मल्ल 'वादी' कहलाने लगा और फिर राजाकी प्रार्थनापर
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