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________________ १२८ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्य प्रकाश २२८. धर्मछलका प्रयोग करके जो राजालोक ऋद्धि प्राप्त करते हैं, वह मांके शरीरको बेंच कर पैसा कमानेके समान होती है। इस नीतिशास्त्र के उपदेशद्वारा, उन वृक (भेडियों) जैसोंके मुंहसे उस छाग (बकरे) को छुड़ा कर और पाथेयादिसे सत्कृत कर, तीर्थयात्रा करनेके लिये रवाना किया । कुछ सालके बाद, वह जब वापस लौट कर आया तो मंत्रीने फिर उचित सत्कारसे उसका आदर किया। इससे वह अपने स्थान पर पहुंच कर [अपने सुलतानके सामने ] तीर्थ यात्राका वखान करनेके बदले श्री वस्तु पाल के गुणोंका ही बखान करने लगा। इसके बाद वह सुलतान प्रतिवर्ष मंत्रीके पास यमलकपत्र ( सन्धिपत्र ) भेज कर अनुरोध करता रहा कि- 'हमारे देशके आप ही अध्यक्ष हैं, और हम तो आपके सेलभृत् (सामंत) हैं। सो हमें किसी करणीय कार्यका आदेश दे करके सदा अनुगृहीत किया करें' । मंत्रीने शत्रु ज य तीर्थक भूमिगृहमें रखनेके लिये सुलतानकी अनुज्ञासे, उसके देशमेंकी मम्मा णी नामक खानमेंसे, सैंकड़ों प्रयत्न करके युगादि जिनकी एक मूर्ति बनवा कर मंगवाई। सुलतानने अपनेको धन्य मानते हुए वह कार्य करने दिया । वह मूर्ति जब पर्वत पर चढ़ाई जा रही थी तो मूलनायकके अमर्षसे पर्वत पर बिजली मिरी । इसके बाद मंत्रीश्वरको फिर जीवनान्त तक शत्रुजय देवके दर्शन नहीं हुए। अनुपमाकी दानशीलता। १९२) किसी पर्वके अवसर पर, अनुपमा देवी मुनियोंको यथेच्छ निरुपम दान दे रही थी। तब किसी राजकार्यकी उत्सुकताके कारण स्वयं वीर ध व ल दे व उस समय वहां आ पहुंचा तो उसने देखा कि श्वेतांबर साधु-यतियोंकी भीड़से मकानका दरवाजा मानों दटा हुआ है। तब विस्मयसे मनमें चकित हो कर वह मंत्रीसे बोला- 'हे मंत्री, अभिमत देवताकी भाँति, सदा ही इन साधुओंका इस तरह सत्कार क्यों नहीं किया करते ? अगर तुमसे न हो सकता हो तो आधा हिस्सा मेरा रहे। मेरा ही सदा दिया जाय ~ ऐसा तो इस कारणसे नहीं कहता कि वैसा करने पर तो फिर तुमको यह वृथा ही परिश्रम करने जैसा लगे ।' उसके मुखचंद्रसे इस प्रकार वाणीरूप किरणके निकलने पर मंत्रीके मनका संताप दूर हुआ और वह बोला- 'स्वामीका आधा हिस्सा क्या ? सब कुछ तो आप ही का है।' यह कह कर उसने वस्त्र निछावर किया। १९३) एक दूसरी बार, यतिदानके अवसर पर, अनेक मुनियोंकी भीडके कारण नमन करती हुई श्रीमती अनुपमा की पीठ पर घीसे भरा हुआ एक पात्र गिर पड़ा। यह देख कर मंत्री तेज पाल बड़ा कुपित हुआ। उसे कुपित देख कर अनुपमा ने यह कह कर सान्त्वना की कि-'आप जैसे स्वामीके प्रमावसे ही तो मुनिजन द्वारा गिराये गये पात्रके घीसे मेरा यह अभ्यङ्ग (घृतस्नान ) हुआ।' इस प्रकार उसकी पूर्णदानकी विधिसे चमत्कृत हो कर, मंत्रीने पञ्चाङ्ग प्रसाद पूर्वक उसकी इस उचित उक्तिसे प्रशंसा की२२९. प्रिय वाणीपूर्वक दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शूरता और त्यागसहित धन, ये चार भद्र ( भले ) कार्य दुर्लभ हैं। इस प्रकारकी अनेक दानवार्ताओंसे प्रसिद्धी पाने वाली उस देवीकी जैनाचार्योंने इस तरह स्तुति की२३०. लक्ष्मी चञ्चला है, शिवा चण्डी ( कोपना ) है, शची सौतदोषसे दूषित है, गंगा निम्नगामिनी है और सरस्वती वाचाल है । इस लिये अनुपमा तो सब तरहसे अनुपमा ही है। वीरधवलकी रणशूरता। १९४) एक दूसरी बार, लवणप्रसाद और वीरधवल पंचग्रामके [स्वामीके ] साथ संग्राम करने पर तुले। तब श्री वी र ध व ल की पत्नी ज य त ल दे वी सन्धिविधानकी इच्छासे अपने पिता प्रती हा र वंशीय श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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