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________________ ११८ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्थ प्रकाश देवमंदिर पुत्रोंके हवाले किये और यह कहा कि - 'मेरे मरे बाद भक्तिपूर्वक इनकी खूब देख भाल रखना' - ऐसा कह कर ज्यों ही वह अन्तिम दशाकी प्रतीक्षा करता है त्यों ही उसके छोटे लडकेने उन मन्दिरोंको तोड-फोड डाला । तब उसका शब्द सुन कर वह बोला – 'अरे पुत्राधम, श्रीमान् अजय देव ने भी पिताके परलोक जानेके बाद, उनके बनाये धर्मस्थानोंको तुड़वाया, और तू तो अभी मेरे जीते ही इन्हें तोड़ रहा है; इस लिये तू तो अधमसे भी अधम हुआ ' । उसका यह प्रसङ्गोचित आलाप सुन कर राजा लज्जित हुआ और उस कुकार्य निवृत्त हुआ । उस दिनके बाद बचे हुए श्री कुमार पाल के [ कुछ ] विहार आज भी दिखाई देते हैं । श्री तारङ्ग दुर्ग में ( तारंगा पहाड ) के अजितनाथको अजय पाल के नामसे अंकित कर धूर्तीने ( ? ) इस उपाय से बचाया । अजयपालका कपर्दी मंत्रीको मरवा डालना । १७६) बादमें अजय देव ने कपर्दी मंत्री को महामात्यका पद लेनेके लिये अत्यन्त प्रार्थना की । उसने यह कह कर कि 6 प्रातःकाल शकुन देख कर उसकी अनुमतिसे प्रभुके आदेशका पालन करूँगा' वह शकुन गृहमें गया । फिर दुर्गादेवीसे माँगे सप्तविध शकुनको पा कर पुष्प अक्षत आदिसे देवीकी पूजा की । अपने आपको कृतकृत्य समझ कर जब नगरके दरवाजे के पास आया तो ईशान कोणमें वृषभको नाद करते देखा। यह देख कर मनमें अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने निवास स्थान पर आया । भोजन करने बाद, उसके मरुदेशीय वृद्ध अंगरक्षकने शकुनका स्वरूप पूँछा । इस पर कपर्दीने उन शकुनोंका स्वरूप कहा और उनकी प्रशंसा की । तब मरुवृद्ध ने कहा २०६. नदीको उतरते समय, विषम मार्ग में चलते समय, दुर्गमें, आसन्न भयके अवसर पर ; स्त्री विषयक कार्यमें, लड़ाईमें और व्याधि में शकुनोंकी विपरीतता श्रेष्ठ कही जाती है । इस प्रमाणसे, आसन्न संकटके कारण मतिभ्रंश हो कर आप प्रतिकूलको भी अनुकूल समझ रहे हैं । वृषभको आपने शुभ मान लिया है, पर वह भी, आपकी मृत्युसे शिव [ धर्म ] का अभ्युदय होना समझ कर उनका वाहन होनेके कारण गर्जा है । उसकी इस [ सब] बातकी उसने उपेक्षा की तो वह [ खिन्न हो कर ] उससे बिदा ले कर तीर्थयात्रा के लिये चला गया। फिर कपर्दी राजाकी दी हुई [ महामात्य पदकी ] मुद्रा ग्रहण करके महान् उत्सवके साथ अपने घर आया । राजाने रातको विश्राम करते हुए उसे गिरफ्तार किया और समानप्रतिष्ठा वालोंने उसका अपमान करना शुरू किया । २०७. जो सिंह कभी हाथीके कुंभस्थल पर पाँव दे कर गजमुक्ताओंका दलन करता था, वही विधिवश आज शृगालों की लातोंका अपमान सहता है । यह सोचता हुआ, [ तप्त लोहके ] कड़ाह में डाले जाने पर वह पंडित इस प्रकार काव्य पढ़ते पढ़ते मार डाला गया २०८. याचकोंको करोडों की कीमतके, दीपकके समान कपिश वर्णवाले सुवर्णका दान दिया; प्रतिवादियों की शास्त्र अर्थसे गर्भित ऐसी वाणीको शास्त्रार्थों में जीत लिया; उखाड़ कर फिरसे राज्य पर बिठाये हुए राजाओंसे शतरंजकी तरह क्रीड़ा की - [ इस तरह ] मैंने अपना कर्तव्य कर लिया है । अब अगर विधिnt [ ऐसी ] याचना है तो उसके लिये भी हम तैयार हैं ! इस प्रकार यह मंत्री श्री कपर्दीका प्रबन्ध समाप्त हुआ । For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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