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प्रकरण १६९ - १७५ ]
कुमारपालादि प्रबन्ध
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[ १३२ ] इसने लड़ाई में तो वीरोंके भी सामने अपने पैर उठाये, पर उनकी स्त्रियोंके सामने तो वह अपना मुख ही नीचा कर लेता था ।
[ १३३ ] हृदय (छाती) में लगे हुए जिसके बाणसे क्लान्त हो कर, जाँगल के राजाने तो अपना सिर घूमाया ही पर उसकी प्रशंसा करने वालों दूसरोंने भी अपना सिर घूमाया ।
[ १३४ ] कौङ्कण देश का नरेश, जो मारे गर्वके रत्नमय मुकुटकी प्रभासे चकचकित ऐसे अपने सिरको न नवाना चाहा तो इस राजाने अपने बाणोंसे उसके सिरको टुकडे टुकडे कर दिया । [ १३५ ] रागवश हो कर जिस राजाने युद्ध में बल्लाल और मल्लिकार्जुन राजाओं के सिरोंको, जयश्रीके दोनों कुचों की तरह ग्रहण किया ।
[ १३६ ] जिस राजाने दक्षिण देश के राजाको जीत कर उससे दो द्विप ( हाथी ) ग्रहण किये । मानों वे इस लिये कि उसके यशसे हम इस विश्वको नष्ट - विपद् बनायेंगे ।
[ १३७ ] शत्रुओंकी पत्नियों के कुचमण्डलको विहार ( विगत-हार ) बनाते हुए जिस राजाने महीमण्डलको उद्दण्डविहार ( जैनमन्दिर ) वाला बनाया ।
[ १३८ ] जिसने पादलग्न महीपालों और तृणको मुंह में दबाने वाले पशुओंके द्वारा मानों प्रार्थित हो कर ही उत्तम अहिंसा व्रतको ग्रहण किया ।
१७३) सं० ११९९ से [ १२३० तक ] ३१ वर्ष तक श्री कुमार पाल ने राज्य किया ।
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अजयपालका राज्याभिषेक ।
१७४) सं० १२३० वर्षमें अजय देव का राज्याभिषेक हुआ । ( इस राजाके वर्णनके कुछ विशिष्ट श्लोक भी P आदर्श में इस प्रकार पाये जाते हैं -)
[ १३९ ] इस [ कुमारपाल ] के बाद कल्पद्रुमके समान अजय पाल नामक राजा हुआ जिसने वसुन्धराको सोनेसे भर दिया ।
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जिसने जाँ गल देश ( के राजा ) के गले पर पैर रख कर उससे दण्डमें सोनेकी मण्डपका ( माँडवी = पालकी जैसी ) और कई मत्त हाथी ग्रहण किया ।
[ १४१ ] उद्दाम तेजसे सूर्यकी भी भर्त्सना करने वाले जिस राजाने, परशुरामकी तरह, क्षत्रियोंके रक्तसे धोई हुई पृथ्वीको श्रोत्रियोंकी रक्षाका पात्र बनाया ।
[ १४२ ] जिस राजा के तीनों गण ( = धर्म, अर्थ, काम ) नित्यदान देनेसे, नित्य राजाओंको दण्ड देनेसे और नित्य स्त्रियोंसे विवाह करनेसे, समान हो कर रहे ।
[ १४३ ] राजाओंके नेपथ्यको धारण करने वाले [ उस राज्य नाटकमें ] शतकृतु ( इंद्र ) [ का अभिनय करने वाले इस राजा ] के चले जाने ( मर जाने ) पर इसके पुत्र मूलराज ने जयन्तका अभिनय किया ।
अजयपालका जैन मन्दिरोंका नाश करना ।
१७५) यह अजय देव जब पूर्वजोंके बनाये मंदिरोंको तुड़वाने लगा तो सीलण नामक कौतुकी, - राजा के सामने नाटकका प्रसंग उपस्थित कर, उसमें, अपनेको कृत्रिम रोगी कल्पित कर, तृणके बने हुए पाँच
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