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________________ ११४ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्थ प्रकाश उस समय तीव्र व्रतमें लगे हुए थे तो भी यह समझ कर कि संघका कोई बड़ा कार्य होगा, विधिपूर्वक विहार करते हुए और रास्तेमें किसीसे ज्ञात न हो कर अपनी ही [ पुरानी ] पौषधशालामें आ कर ठहर गये । राजा तो उनकी अगवानी करनेके लिये सजावट करा रहा था इतनेमें सूरिने उसे सूचित किया तो वह वहाँ पर आया। तब राजा प्रभृति समस्त श्रावकोंके साथ प्रभुने द्वादशावर्त पूर्वक उन गुरुको प्रणाम किया। उन्होंने जो उपदेश-वचन कहे वे उन दोनोंने ( राजा और सूरिने ) सुने । फिर गुरुने संघका कार्य पूछा। इस पर सभा विसर्जन करके पर्देकी ओटमें श्री हे मा चार्य और राजाने उनके चरणों पर गिर कर सुवर्ग-सिद्धिके बतानेकी याचना की। श्री हे मा चार्य ने कहा कि- जब मैं बालक था तब आपने किसी काठ ढोने वालेके पाससे एक वल्ली ( लता ) ली थी और आपके आदेशसे, अग्निमें जलाए हुए तांबेके टुकड़ेको उसके रसमें भिगोने पर, वह सोना हो गया था। उस लताका नाम और संकेत आदि बतानेकी कृपा कीजिये ।' उनके ऐसा कहने पर गुरुने श्री हे म चं द्र को क्रोधसे दूर ठेल दिया और बोले कि 'तू इस योग्य नहीं । पहले मूंगके जूस ( मूंगकी दालके पानीके ) समान जो [ हलकी ] विद्या तुझे दी थी उसीसे तुझे [ इतना ] अजीर्ण हो गया है, तो फिर तुझसे मंदाग्नि रोगीको यह मोदक जैसी [ भारी] विद्या कैसे दूं?' इस प्रकार उन्हें निषेध करके, राजासे कहा- 'तुम्हारा ऐसा भाग्य नहीं है कि संसारको अनृण करने वाली विद्या सिद्ध हो जाय । और फिर, जीवहिंसाका निवारना और पृथ्वीको जिनमन्दिरोंसे मंडित करना आदि पुण्यकार्योसे तुम्हारे दोनों लोक सफल बन गये हैं, अब इससे अधिक और क्या चाहते हो ?' यह कह करके, उसी समय वे वहाँसे विहार कर गये । इस प्रकार सुवर्णसिद्धिके निषेधका यह प्रबंध समाप्त हुआ। एक बार राजाके पूछनेपर प्रभुने उसके पूर्व जन्मका सारा वृत्तान्त कहा* । मंत्री चाहडका दानी पना। १६६) इसके बाद, किसी समय, राजाने सपाद ल क्ष के राजा पर चढाई ले जानेके लिए सेना सजित की। श्री वा ग्भ ट मंत्रीके छोटे भाई चा ह ड मंत्री को, अत्यधिक दान करते रहनेके कारण दोष-युक्त होने पर भी उसे खूब सिखामन दे कर, सेनापति बनाया। वह प्रयाण करके दो-तीन पडाव दूर गया ही था कि बहुतसे याचक इकडे हो कर उसके पास आये तो उसने कोषाध्यक्ष (खजांची) से १ लाख मुद्रायें माँगी । पर राजाकी आज्ञा न होनेसे जब वह नहीं देने लगा, तो सेनापतिने उसे चाबुकके प्रहारोंसे मार कर सेनासे निर्वासित कर दिया और फिर स्वयं यथेच्छ दान दे करके याचकोंको प्रसन्न किया। चौदह सौ सांढनियों पर चढ़े हुए २८०० सुभटोंको साथ ले कर रास्ते कुछ ही पडाव करके बम्बे रा नगर के किलेको जा घेरा । वहाँ पर नागरिकोंसे यह सुन कर, कि उसी रातको सात सौ कन्याओंके विवाह होने वाले हैं, उस रातको वैसा ही पड़ा रहा । दूसरे दिन किले पर दखल कर लिया। वहाँ पर सात करोडका सोना तथा ग्यारह हजार घोड़ियोंकी प्राप्ति हुई जिसकी सूचना शीघ्रगामी आदमियों द्वारा राजाके पास भिजवा दी । स्वयं उस देशमें कुमार पाल राजाकी आज्ञा फिरा कर और अपने अधिकारी नियुक्त करके लौट आया। पत्त न में प्रवेश करके राजमहलमें आ कर राजाको प्रणाम किया। राजाने समुचित आलापके साथ, उसके गुणसे रञ्जित हो कर भी, इस तरह कहा कि * पूर्व जन्मके वृत्तान्तवाला यह प्रबन्ध इस ग्रन्थमें नहीं दिया गया। यह पंक्ति एक ही पुरानी प्रतिमें लिखी हुई मिली है जिसका सूचन शास्त्री दीनानाथने अपनी उस पुरानी आवृत्तिमें किया है। पुरातन प्रबन्धसंग्रह, प्रबन्धकोष, कुमारपालचरित्र संग्रह आदि ग्रन्योंमें यह प्रबन्ध मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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