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प्रकरण १६६-१६८ ] कुमारपालादि प्रबन्ध
[ ११५ 'तुममें जो यह स्थूल-लक्ष्यता वाला बडा भारी दोष है वही एक प्रकारसे तुम्हारा रक्षामंत्र है। नहीं तो लोगोंकी नजर लग कर तुम खड़े ही खड़े फट पडो । तुम जो व्यय करते हो वह तो मैं भी कर सकनेमें समर्थ नहीं हूँ।' राजाकी यह बात सुन कर उसने कहा कि- 'महाराजने जो कहा वह यथार्थ ही है । ऐसा व्यय महाराज सचमुच नहीं कर सकते । क्यों कि महाराज पितृपरंपरासे तो राजाके पुत्र हैं नहीं। और मैं तो खुद महाराजका पुत्र हूँ। अतः मैं इतना अधिक अर्थव्यय कर सकता हूँ।' उसकी इस बातसे चाहे राजा खुश हुआ हो या नाराज,- वह तो कसौटी पर कसे हुए सुवर्णकी कान्तिको धारण करता हुआ, अनमोल हो कर, राजासे बिदा ले कर अपने स्थान पर पहुँच गया ।
इस प्रकार यह राजघरट्ट चाहडका प्रबंध समाप्त हुआ।
१६७) उसी प्रकार उसका छोटा भाई, जिसका नाम सो ला क था, उसने ' मण्डलीक सत्रागार' ऐसा बिरुद धारण किया था।
कुमारपाल द्वारा राणा लवणप्रसादका भविष्य कथन । १६८) इसके बाद, एक बार, आ ना क नामक अपने मौसेरे भाईके सेवागुणसे सन्तुष्ट हो कर राजाने उसे सामान्त-पद प्रदान किया। तो भी वह तो उसी तरह सेवा करता रहा । एक बार, दो पहरके समय, राजा जब चन्द्रशालामें पलंग पर बैठा हुआ था तब वह भी उसके सामने बैठा था । उस समय सहसा किसी नौकरको वहाँ आते देख राजाने पूछा कि- ' यह कौन है ? ' । आ ना क ने देखा तो वह उसीका नौकर मालूम दिया । उस नौकरका इशारा पा कर वह वहाँसे बाहर निकल कर कुशल समाचार पूछने लगा, तो नौकरने उससे पुत्रजन्मकी बधाई माँगी । इस समाचारसे उसका चेहरा सूर्य जैसा चमक उठा और फिर उसे बिदा करके अपने स्थान पर आ बैठा । राजाके यह पूछने पर कि क्या बात है ? तो उसने कहा कि-'महाराजके [ सेवकके ] घर पुत्र हुआ है । यह सुन, राजा अपने मनमें कुछ सोच कर, प्रकाश भावसे बोला-'पुत्रजन्म निवेदन करनेके लिये यह चाकर जो वेत्रधारियोंकी विना बाधाके ही यहाँ तक आ पहुँचा सो इससे जाना जाता है कि अपने पुण्यके प्रभावसे यह गूर्ज र देश का राजा होगा, पर इस नगरमें और इस धवलगृहमें ( राजमहलमें ) नहीं। क्यों कि तुम्हें इस स्थानसे उठा कर इसने पुत्रोत्पत्तिकी बधाई दी है इस लिये इस नगरका राजा नहीं होगा।'
इस प्रकार विचार चतुर्मुख श्री कुमारपाल देवद्वारा निर्णीत
लवणप्रसाद राणाका प्रबंध समाप्त हुआ।
२०५. अपने आज्ञावर्ती ऐसे अठारह बड़े देशोंमें, संपूर्ण चौहद वर्ष तक जीवहत्याका निवारण करके, __ और अपनी कीर्तिक स्तंभके समान १४ सौ जैन विहारोंका निर्माण करके जैन राजा कु मा र पाल ने
अपने सब पापोंको क्षय कर दिया। [१२५-७ ] कर्नाटक, गूर्जर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिन्धु, उच्च, भंभेरी, मरुदेश, मालव, कोंकण,
कीर, जांगलक, सपादलक्ष, मेवाड़, ढीली (दिल्ली ) और जालंधर इतने देशोंमें कुमार पाल राजाने प्राणियोंको अभयदान दिया और सातों व्यसनोंका निषेध किया। रुदतीधन (अपुत्र कुटुम्बके धन) का ग्रहण मना किया और न्यायघण्टा बजा कर प्रजाको संतुष्ट किया ।
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