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प्रकरण १६३-१६५] कुमारपालादि प्रबन्ध ।
[ ११३ ___ कुमारपालका तीर्थयात्रा करना। १६४) एक बार, राजा श्री कुमार पाल ने संघाधिपति हो कर तीर्थयात्राके लिये महोत्सवपूर्वक संघ निकालना निश्चित किया और उसके देवालयका प्रस्थान-मुहूर्त साधित किया । इतने में देशान्तरसे आये हुए चर युगलने कहा कि-'डा ह ल देश का राजा कर्ण आप पर चढ़ाई करके आ रहा है।' [इसको सुन कर ] राजाके ललाट देश पर [ पसीनेके ] स्वेद बिंदु झलकने लगे। संघाधिपत्यके पदकी प्राप्तिका मनोरथ नष्ट हो जानेके भयसे वाग्भ ट मंत्री के साथ आ कर प्रभुके चरणों पर गिर पड़ा और अपनी निंदा करने लगा। राजाके आगे इस प्रकार महाभयका उपस्थित होना जान कर, प्रभुने कुछ सोच कर कहा कि- 'बारह पहरमें ही इस भयकी निवृत्ति हो जायगी [ इस लिये कुछ चिन्ता न करो ] । राजा बिदा हो कर, किं - कर्तव्यविमूढ़सा बना हुआ ज्यों ही बैठा था त्यों ही निति समय पर आये हुए दूसरे चरयुगलने समाचार दिया कि- ' श्री कर्ण रा ज का [ अकस्मात् ] स्वर्गवास हो गया । ' राजाने मुँहसे पानका त्याग करते हुए पूछा'सो कैसे ? ' उन्होंने कहा - ' हाथीके होदे पर बैठ कर राजा कर्ण रातको प्रवास कर रहा था तब उसकी नींदसे आँखें बन्द हो गईं । गलेमें लटकता हुआ सोनेका हार एक बरगदके दरख्तकी डालीमें उलझ गया
और उससे खींचा जा कर राजा मर गया । हम दोनों उसके अग्निसंस्कारके अनन्तर वहाँसे चले हैं। उनके ऐसा कहने पर, राजा तत्काल पौषधशालामें आया और सूरिकी अत्यन्त ही प्रशंसा करने लगा जिसको किसी तरह उन्होंने रोका। फिर, ७२ सामंत और संपूर्ण संघके साथ, प्रभुके बताये हुर [धर्म और प्रवासके ] दोनों प्रकारके मार्गसे धुन्धु क न ग र में आया। वहाँ पर प्रभुके जन्मस्थानमें स्वयं बनाये हुए १७ हाथ ऊँचे झोलि का विहार में उत्सवादिका विधान करने पर जातिपिशुन ब्राह्मणोंने विन किया तो, उन्हें देश निकाला दिया गया और फिर शत्रु ज य की उपासना की। वहाँ ' दुक्खखओ कम्मक्खओ' ( दुःखक्षयः, कर्मक्षयः ) इस प्रकारके प्रणिधान दण्डक ( सूत्रपाठ ) का उच्चारण करता हुआ देवके पास विविध प्रार्थना करनेके अवसर पर किसी चारणके मुँहसे यह कथन सुना२०४. अहो यह जिनदेवका कितना भोलापन है ! जो एक फूलके बदलेमें मुक्तिका सुख दे देता है।
इसके साथ किस बातका सोदा किया जाय । उसके नौ बार इस दोहे के पढ़ने पर, राजाने उसे नौ हजारका दान किया। इसके बाद जब वह उज यन्त (गि र नार) के पास आया तो अकस्मात् पर्वतमें कंप हुआ देखा । तब श्री हे मा चार्य ने राजासे कहा-' वृद्धोंकी यह परंपरागत बात है कि, एक ही साथ दो पुण्यवन्त पुरुष इस पर चढते हैं तो यह छत्रशिला गिर पडती है। यदि यह बात कहीं सत्य हो तो लोकापवाद होगा, क्यों कि हम दोनों ही [ एकसे ] पुण्यवान् हैं । इस लिये आप ही [ पर्वत पर ] नमस्कार करने जॉय, हम नहीं।' पर राजाने आग्रह करके प्रभुको ही संघके सहित ऊपर भेजा । स्वयं नहीं गया। श्री वाग्भ ट देव को छत्रशिलाके उस रास्तेको छोड़ कर जीर्ण प्रा कार (जू ना गढ़) के रास्तेसे नई पद्या (पत्थरकी सीढी) बनवानेके लिये आदेश दिया। पद्याके बनानेमें ६३ लाख दाम लगे।
इस प्रकार तीर्थयात्राप्रबंध समाप्त हुआ।
कुमारपालका स्वर्णसिद्धिकी प्राप्तिकी इच्छा करना । १६५) एक बार, पृथ्वीको अनृण करनेकी इच्छासे, राजाने स्वर्णसिद्धिकी प्राप्तिके लिये श्री हे म चंद्रा चार्य के उपदेशसे उनके गुरु श्री दे व चन्द्रा चार्य को, श्री संघ और राजाकी विज्ञप्ति भिजवा कर वहां बुलवाये । वे Jain Education | २९.३०
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