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प्रबन्धचिन्तामणि
[ चतुर्थ प्रकाश
देवताके संकेत से राज्याभिमानको छोड़ कर उसने कहा- 'जीव ! पधारिये !' इस प्रकार विनयसे सिर नवाता हुआ हाथ जोड़ कर बोला कि ' जो आज्ञा हो सो कहिये ।' इसके बाद वहीं पर उसे यावज्जीवन मद्य-मांस के त्यागका नियम दिया और वहाँसे लौट कर वे दोनों क्षमापति ( मुनि तो क्षमा क्षान्तिके पति, राजा क्षमा = पृथ्वी के पति ) अ ण हि ल्लपुर आये ।
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कुमारपालका परमार्हत श्रावक बनना ।
१४३ ) श्री जिनमुखसे निःसृत पवित्र वचनोंके श्रवण द्वारा प्रतिबुद्ध हो कर राजाने 'परमाई त ' बिरुदको धारण किया । उससे अभ्यर्थित हो कर प्रभु ( हेम चंद्र ) ने 1 'त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित' तथा वीस ' वीतराग स्तुतियाँ' से युक्त पवित्र ' योग शास्त्र' की रचना की। उनका आदेश पा कर अपने आज्ञानुवर्ती अठारह देशोंमें, चौदह वर्ष तक, सर्व प्रकारकी जीव हत्याका निवारण किया ।
[ १२३ ] सतत आकाशमें विचरण करने वाले सप्तर्षिगण एक मृगीको भी व्याधोंके पाशसे मुक्त नहीं कर सके । परन्तु प्रभु श्री हे म सूरि अकेलेने ही चिरकाल तक पृथ्वी पर जीववध होनेका निषेध कर दिया ।
[ १२४ ] [ आकाश स्थित ] कलाकलाप पूर्ण ऐसे चन्द्रमासे [ पृथ्वी स्थित ] हे म चन्द्र सूरि अधिक उज्ज्वलकीर्ति हैं । क्यों कि, चन्द्रमाने तो केवल एक ही मृगका [ अपनी गोद में ले कर ] रक्षण किया है जब हे म चन्द्र ने तो सब ही मृगोंका ( सारे पशुगणका ) रक्षण किया है ।
राजाने उन उन देशों में १४४० नये विहार ( जैन मन्दिर ) बनवाये । सम्यक्त्व मूलक १२ व्रतोंको अंगीकार किया । अदत्तादानविरमण स्वरूप तीसरे व्रतकी व्याख्या सुन कर रुदती ( रोती हुई विधवा नारियोंके ) धनका ग्रहण पापोंका कारण है ऐसा समझ कर, उस कामके अधिकारी पंचकुलों ( कर्मचारी गण ) को बुला कर उसके आयपट्टको, जिसका [ वार्षिक ] प्रमाण ७२ लाख था, फाड़ कर, उस करको बन्द कर दिया | उस करके छोड़ देने पर विद्वानोंने इस प्रकार स्तुति की -
१८९. जिस रुदतीवित्तको, कृतयुगमें पैदा होने वाले रघु नहुष - नाभाग भरत आदि जैसे राजा लोग भी छोड नहीं सके, उसे करुणावश हो कर मुक्त करने वाले कुमार पाल ! तुम महापुरुषों के मुकुटमणि हो ।
प्रभु हेम सूरि ने भी इस तरह राजाका अनुमोदन किया कि -
१९०. अपुत्र पुरुषोंका धन ग्रहण करके [ अन्य ] राजा तो पुत्र होता है । किन्तु सन्तोषपूर्वक उसका त्याग करने वाले तुम तो सचमुच राज पितामह हो ।
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मंत्री उदयनका सौराष्ट्र के युद्धमें मारा जाना ।
१४५) फिर, सुराष्ट्र देश के सउंसर [ ठाकुर ] से युद्ध करनेके लिये उदयन मंत्री को दलका नायक बना कर सारी सेनाके साथ भेजा गया । वह वर्द्धमानपुर ( आधुनिक व ढवाण ) में पहुँच कर [ नजदीकही में रहे हुए शत्रुंजय पहाड पर ] श्री युगादिदेवको नमस्कार करने की इच्छासे, समस्त मंडलेश्वरोंको आगे चलने की अभ्यर्थना कर, खुद विमल गिरि ( शत्रुंजय ) आया । विशुद्ध श्रद्धा के साथ देवचरणोंकी पूजा करके ज्यों ही विधिपूर्वक चैत्यवंदना करने लगा, त्यों ही एक मूषक ( चूहा ) नक्षत्रमालासी प्रदीप्त दीपमालामेंसे एक दीपवर्तिका ( दियेकी जलती हुई बाट ) को ले कर काठके बने उस प्रासाद के किसी बिलमें प्रवेश करने लगा, तो देवके अंगरक्षकोंने उसे छुडाया । इसे देख कर उस मंत्रीका समाधिभंग हो गया
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