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प्रकरण १४२ ]
कुमारपालादि प्रबन्ध
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पा कर [ मूल ] प्रासादकी चौकट पर चढ़ गये। मनमें कुछ सोच कर प्रकाशमें बोले कि-' इस प्रासादमें साक्षात् कैलासवासी महादेव रहते हैं, इस लिये रोमांचकंटकित शरीरको धारण करते हुए, उपहारको दूना कर दिया जाय!' ऐसा आदेश करके शिव पुराण में कहे हुए दीक्षा-विधिके अनुसार आव्हान - अवगुंठन - मुद्रा - मंत्रन्यासविसर्जन आदि स्वरूप, पंचोपचार विधिसे शिवकी पूजा की । अन्तमें इस प्रकार स्तुति की१८७. जिस किसी धर्ममतमें, जिस किसी नामसे, तुम जो कोई भी हो, लेकिन दोष और कलुषतासे
रहित ऐसे तुम एक ही भगवान् हो और इस लिये हे भगवन् ! तुम्हें नमस्कार है। १८८. पुनर्जन्मके अंकुरको पैदा करनेवाले राग आदि जिसके नष्ट हो गये हैं वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो
या शिव हो- उसे हमारा नमस्कार है। इत्यादि स्तुतियाँ करते हुए, सब राजपुरुषोंके साथ विस्मययुक्त हो कर राजाके देखते रहने पर, हे मा चार्य दण्डवत् प्रणाम करके स्थित हुए। फिर बृहस्पति की बतलाई हुई पूजाविधिके अनुसार साभिलाष भावसे राजाने शिवका पूजन किया। इसके अनन्तर धर्मशिलामें बैठ कर तुलापुरुषदान, गजदान आदि महादान दे करके कर्पूरकी आरती उतारी।
कुमारपालकी तत्त्वजिज्ञासा और हेमाचार्यका शिवको प्रत्यक्ष करना ।
फिर सभी राजपुरुषोंको हटा कर, शिवके गर्भगृहके अन्दर प्रवेश करके राजा बोला कि-'न महादेवके समान देव है, न मेरे समान राजा है और न आपके समान महर्षि । भाग्यवश इन तीनोंका सहज संयोग हुआ है। इस लिये, नाना दर्शनोंके भिन्न भिन्न प्रमाणोंके कारण जिस देवतत्त्वके बारे में चित्त संदिग्ध हो रहा है, उस मुक्तिदायक सच्चे देवका वास्तविक स्वरूप, इस तीर्थभूमिमें आप सत्य सत्य रूपसे मुझे बताइये । ' यह सुन कर श्री हे म चंद्र ने बुद्धिसे कुछ सोच कर राजासे कहा - ' इन दर्शनोंके पुराने कथनोंको छोड दीजिए । मैं श्री सोमेश्वर देवको ही आपके प्रत्यक्ष कर देता हूँ। उन्हींके मुखसे मुक्तिमार्ग क्या है सो जान लीजिये । ' यह वाक्य सुन कर बोला- 'क्या यह भी संभव है ?' इस तरह राजाके विस्मित होने पर [ सूरिने कहा* निश्चय ही यहाँ पर तिरोहित भावसे दैवत वर्तमान है । और हम दोनों गुरुके कथनके अनुसार इनके निश्चल आराधक हैं । तो फिर इस प्रकार, इस द्वन्द्वके सिद्ध होनेके कारण देवताका प्रादुर्भाव होना सरल है । मैं प्रणिधान (ध्यान ) करता हूँ और आप कृष्ण अगुरुका उत्क्षेप (धूप ) करें । और वह उत्क्षेप तब बन्द करियेगा, जब प्रत्यक्ष शिव आ कर निषेध करें ।' इसके बाद दोनोंके इस प्रकार करने पर जब गर्भगृह धुंएसे भर कर अन्धकारमय हो गया और नक्षत्रमालाके समान उज्ज्वल प्रदीप्त दीपक जब बुझ गये, तो फिर अकस्मात् , जैसे मानों बारहों सूर्यका तेज फैल रहा हो ऐसा प्रकाश दिखाई देने लगा। उसे देख कर संभ्रमवश राजा अपनी
आँखें मलता हुआ देखने लगा तो, जलाधारके ऊपर श्रेष्ठ जंबूनद ( सुवर्ण ) के समान धुतिवाले, चक्षुसे दुरालोक्य, अपरूप असंभव स्वरूपवाले एक तपस्वी दिखाई दिये । उसको पैरके अँगूठेसे ले कर जटा-जूट तक स्पर्श करके देवताका अवतार निश्चित किया और पंचाङ्गसे पृथ्वीतल पर लुठित हो कर प्रणाम करके भक्तिसे राजाने विज्ञप्ति की कि-' जगदीश ! आपका दर्शन करके आँखें कृतार्थ हुईं, अब आदेशका प्रसाद कर कर्णयुगलको कृतार्थ करो।' ऐसा कह कर राजाके चुप हो जाने पर, मोहरात्रिके लिये सूर्य स्वरूप उनके मुखसे, यह दिव्य वाणी प्रकट हुई - 'राजन् ! यह महर्षि सब देवताके अवतार हैं । पूर्ण परब्रह्मके अवलोकनसे, करतलमें रहे हुए मुक्ताफलकी तरह इन्हें त्रिकालका स्वरूप विज्ञात हैं । इस लिये इनका बताया हुआ मुक्तिमार्ग ही असंदिग्व मुक्तिमार्ग है।' ऐसा कह कर शिव जब अन्तर्धान हो गये तो, प्राणायाम पवनका रेचन कर और आसन बंधको शिथिल करके ज्यों ही श्री हे म चंद्र ने 'राजन् ! ' यह शब्द कहा, तो तत्काल इष्ट
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