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________________ १०२ ] प्रबन्धचिन्तामणि [ चतुर्थ प्रकाश या तो ध्वजारोप हो तब तक शुद्ध भावसे ब्रह्मचर्य पालन करना या मद्य-मांसका नियम लेना ( त्याग करना ) ' ऐसा कहने पर, उनकी बात सुन कर मध-मांस के नियमकी अभिलाषा करते हुए, उसने शिवके ऊपर जल छोड़ कर उक्त शपथको ग्रहण किया। दो वर्ष के बाद, जब कि, उस मंदिरमें कलश और ध्वजका आरोपण कार्य पूरा हुआ, उसने नियमसे मुक्त होनेकी अनुज्ञा पानेके लिये गुरुसे कहा । उन्होंने कहा कि - अपने इस समुद्धृत कीर्तन (मन्दिर) के साथ यदि चंद्रचूड (शिव) के दर्शन करने की इच्छा हो तो यात्रा करनेके बाद ही नियम छोड़ना उचित होगा । ' ऐसा कह कर मुनिवर हेम चंद्र वहांसे चले गये । उनके गुणोंसे नीली के रंगकी भाँति दृढरूप से हृदयमें अनुरक्त हो कर वह राजा सभामें केवल उन्हींकी प्रशंसा करने लगा । * हेमचन्द्राचार्यका सोमेश्वरकी यात्रा निमित्त कुमारपालके साथ जाना । तब, निष्कारण वैरी ऐसा कोई परिजन उनके तेजःपुञ्जको न सह कर, इस मसलके अनुसार कि - १८६. उज्ज्वल गुणवालेको अभ्युदित होता देख कर क्षुद्र मनुष्य किसी तरह उसे नहीं सहन कर सकता । जैसे पतिंगा अपने शरीरको जला कर भी दीप्त दीपशिखाको बुझा देना चाहता है । पीठका मांस भक्षण करनेके दोषको अंगीकार करके ( पीठ पीछे चुगली खा करके ) भी उनका अपवाद करने लगा कि - ' यह बड़ा चालाक, हां जी हां करने वाला और सेवाधर्म कुशल है, जो केवल महाराजकी मरजीकी ही बात कहता रहता है । यदि ऐसा नहीं है, तो प्रातःकाल आप सोमेश्वर की यात्रामें साथ चलनेको उससे कहें। आपके ऐसा कहने पर वह परधर्मके तीर्थ का परिहार करके किसी कारण वहाँ नहीं आवेगा । और हम लोगों का मत ही प्रमाणभूत मालूम देगा।' राजाने उसकी बातका स्वीकार करके प्रातःकाल जब श्री हेमचंद्राचार्य आये तो, सो मे श्वर की यात्रामें साथ चलनेके लिये उनसे अभ्यर्थना की। इस पर श्री सूरि बोले कि ' बुभुक्षित (भूखे) के लिये निमंत्रणकी क्या [ ज़रूरत है] और उत्कंठित के लिये केकारवके श्रवणके कहनेकी क्या आवश्यकता है - इस कहावत के अनुसार उन तपस्वियोंके लिये, जिनका तीर्थयात्रा करना तो एक अधिकारसा धर्म है, उन्हें राजाके आग्रहका क्या प्रयोजन ?' इस तरह जब गुरुने अंगीकार किया, तो राजाने कहा कि' आपके लिये पालकी आदि क्या सवारी दी जाय ? ' गुरुने कहा कि - 'हम लोग पांवोंसे चल कर ही पुण्य प्राप्त करते हैं । किन्तु हम थोडे थोडे चल कर श्री शत्रुंजय, उज्जयंत ( गिरनार ) आदि तीर्थोको नमस्कार करते हुए आपसे [सोमनाथ ] पत्तन में प्रवेश करने के समय आ मिलेंगे । ' ऐसा कह कर उन्होंने वैसा ही किया । राजा अपनी सारी राज्यऋद्धि के साथ प्रस्थान कर कुछ पडावोंके बाद पत्तन को पहुँचा । वहाँ श्री हेमचन्द्र मुनीन्द्र भी आ मिले जिससे वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ । गण्ड० श्री बृहस्पति ने सम्मुख आ कर अगवानी की और महोत्सवके साथ उनको नगर में प्रवेश कराया । श्री सोमनाथ के प्रासादकी सीढ़ियों पर चढ़ कर, जमीन पर लेट कर उसे प्रणाम करनेके बाद, चिरकालसे दर्शनकी उत्कट आकांक्षाके कारण सोमेश्वर के लिंगका गाढ आलिंगन किया । हेमाचार्यका शिवकी पूजा-स्तुति करना । जैनधर्मसे द्वेष रखने वालोंके मुँहसे यह कथन सुन कर कि 'ये जिन देवके अतिरिक्त अन्य देवताओंको नमस्कार नहीं करते ' भ्रान्त चित्त वाले राजाने हे म चन्द्र से यह बात कही कि -' यदि योग्य मालूम दे तो इन मनोहर उपहारोंसे आप श्री सोमेश्वर देवकी पूजा करें। ' ' अच्छी बात है ' ऐसा कह करके उन्होंने शीघ्र ही राजाके कोशसे आये कमनीय अलंकारोंसे अलंकृत हो कर, राजाकी आज्ञासे श्री बृहस्पति द्वारा हाथका सहारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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