________________
प्रकरण १४०-१४२ ] कुमारपालादि प्रबन्ध
[१०१ बहा कर अपनेको रत्नगर्भा माना। तीर्थंकरोंको भी माननीय ऐसा संघ मेरे पुत्रको माँग रहा है, यह बडे हर्षकी बात है, फिर भी मुझे विषाद होता है । क्यों कि इसका पिता नितांत मिथ्या-दृष्टि ( जैन धर्ममें अश्रद्धालु ) है और वैसा हो कर भी वह इस समय गाँवमें नहीं है । उन व्यवहारियोंने कहा कि [ उसका कुछ विचार न कर इस पुत्रको ] तुम दे दो । उनके ऐसा कहने पर, माताने अपना दोष उतार देनेकी इच्छासे, दाक्षिण्यके वश हो कर अमात्र-गुणपात्र ऐसे अपने उस पुत्रको उन गुरुको दे दिया। तदनन्तर उस ( माँ) ने जाना कि उन (आचार्य) का नाम दे व चंद्र सूरि हैं। गुरुने उस बालकसे पूछा कि- 'तुम शिष्य बनोगे?' तो उसने 'हाँ' ऐसा कहा और वह लौटते हुए गुरुके साथ चल पड़ा । वहाँसे वे क र्णा व ती शहरमें आये । वहाँ पर उ द य न मंत्रीके पुत्रोंके साथ वह बालक पालकों द्वारा पाला जाने लगा। इतने में बाहर गाँवसे आये हुए चा चि ग ने वह सारा वृत्तान्त सुना तो, जब तक पुत्रका मुँह न देखने मिले तब तक, अन्नका त्याग कर उन गुरुका नाम पूछता हुआ क र्णा व ती पहुँचा । आचार्यके वसतिस्थानमें जा कर उस कुपित पिताने कुछ थोडासा प्रणाम किया । गुरुने पुत्रके अनुहारेसे उसे पहचान लिया, और फिर विचक्षणताके साथ विविध प्रकारके सत्कारोंसे उसे आवर्जित कर, उद य न मंत्रीको वहाँ बुलाया । धर्मबन्धु कह कर वह उसे अपने भवनमें ले गया और बडे भाईकी तरह भक्तिपूर्वक उसे भोजन कराया। फिर चांगदे व नामक उस लडकेको उसकी गोदमें रख कर पञ्चाङ्ग पुरस्कारके साथ तीन दुकूल ( बहुमूल्य वस्त्र ) और तीन लाख रोकड द्रव्य भक्तिके साथ भेंट किया। उस ( उदयन ) से चा चि ग ने कहा- 'एक क्षत्रियके मूल्यमें १ हजार अस्सी. घोडेके मूल्यमें १७५०, और अत्यन्त मामूली भी बनियेके मूल्यमें ९९ हाथी, अर्थात् ९९ लाख होते हैं। तुम तो तीन लाख दे कर उदारताके बहाने कृपणता बता रहे हो । पर मेरा पुत्र तो अमूल्य है और उस पर तुम्हारी भक्ति अमूल्यतम है । सो इसके मूल्य में वह भक्ति ही मुझे बस है। द्रव्यसंचय मेरे लिये शिवनिर्माल्यकी भाँति अस्पृश्य है।' चा चि ग के इस प्रकार कहने पर अत्यन्त आनन्दित चित्तसे उत्कंठित हो कर उस मंत्रीने आलिंगन करके उसे धन्यवाद दिया, और फिर बोला कि-'अपने पुत्रको मुझे समर्पित करनेसे तो, यह बालक मदाड़ीके बानरकी नाई सब लोगोंको नमस्कार करता रहेगा और केवल अपमानका पात्र बनेगा। परंतु, गुरु महाराजको दे देने पर बालचंद्रमाकी भाँति त्रिलोकके नमस्कार योग्य होगा। अतः यथा-उचित विचार करके कहो।' ऐसा आदेश पा कर उसने कहा कि- 'आपका जो विचार हो वही मुझे मान्य है।' ऐसा कहने पर उसको वह मंत्री गुरुके पास ले गया और उसने पुत्रको गुरुको समर्पित कर दिया। फिर तो चा चि ग ने स्वयं उसके प्रवजित होनेका उत्सव किया । बादमें [ वह बालक ] अप्रतिम प्रतिभायुक्त होनेके कारण, अगस्त्यकी नाई समस्त वाङ्मय रूप समुद्रको
चुल्लूमें रख कर पी गया। समस्त विद्यास्थानोंका अभ्यास कर गुरुके दिये हुए 'हे म चंद्र' नामसे प्रसिद्ध हुआ। सकल सिद्धान्त और उपनिषत्का पारगामी और छत्तीस ही सूरिगुणोंसे अलंकृत समझ कर गुरुने उसे सूरि पद पर अभिषिक्त किया ।' इस प्रकार उ द य न मंत्री की कही हुई हे मा चार्य के जन्मादिकी यह प्रवृत्ति सुन कर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ ।
कुमारपालका सोमेश्वरके उद्धारकी समाप्तिके निमित्त नियम लेना। १४२) फिर श्री सो म ना थ दे व के प्रासादके आरंभके लिये जब दृढ शिलाका आरोपण हो गया तो राजाने श्री हे म चंद्र गुरुको पंचकुलकी भेजी हुई वर्धापना ( बधाई ) की विज्ञप्ति दिखाते हुए कहा कि - ' यह प्रासादारंभ किस प्रकार निर्विघ्नरूपसे समाप्त हो [ सो उपाय बताइए] ' । राजाके कहने पर श्री गुरुने कुछ विचार कर कहा कि-' इस धर्मकार्यमें कोई विघ्न न उत्पन्न हो उसके लिये दो-मेंसे एक काम करना होगा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org