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प्रकरण १४३-१४५ ] कुमारपालादि प्रबन्ध
[ १०५ और इस प्रकार उस काष्ठमय देवप्रासादका कभी विध्वंस होना सोच कर उसने उस मंदिरका जीर्णोद्धार करवाना चाहा । इस इच्छासे देवके सामने ही एकभक्त (एकाशन करने ) आदिके नियम ग्रहण किये । फिर वहाँसे प्रयाण करके अपने पड़ाव पर आया । उस प्रत्यर्थी (शत्रु) के साथ युद्ध शुरू होने पर शत्रुद्वारा राजाकी सेनाका पराजित होना देख कर उ द य न स्वयं युद्धके लिये उठा । वह प्रहारोंसे जर्जरशरीर हो गया तो फिर निवासमें ले आया गया।[जीवनान्त समीप जान कर वहसकरुण स्वरसे रोने लगा।।
। स्वजनोंने इसका कारण पूछा, तो उसने कहा कि, मृत्यु निकट आ गया है और शत्रुञ्ज य और शकुनि का विहार के जीर्णोद्धारकी इच्छाका देवऋण पीठ पर लगा रह गया । इस पर उन्होंने कहा- 'आपके वाग्भ ट और आम्र भट नामक दोनों पुत्र अभिग्रह ले कर तीर्थोद्धार करेंगे। हम लोग इसके लिये प्रतिभू ( जामीन ) बनते हैं।' उनके इस प्रकार अंगीकार करनेसे अपनेको धन्य समझता हुआ वह मंत्री अन्त्याराधनाके लिये किसी चारित्रधारीको खोजने लगा। वहाँ पर कोई चारित्री न मिलनेसे किसी एक नौकरको साधुवेषमें ले आ कर उसको निवेदित करने पर, मंत्री उसके चरणोंको ललाटसे स्पर्श करता हुआ, उसीके सामने दस प्रकारकी आराधना करके वह श्रीमान् उ द य न परलोक प्राप्त हुआ । पीछेसे, चंदन वृक्षके परिमलसे वासित क्षुद्र वृक्षकी नाई उस वंठ ( नौकर )ने अनशन व्रत ले कर रैव त क पर्वत पर अपने जीवनका अन्त कर दिया।
मंत्री बाहडका शत्रुञ्जयतीर्थोद्धार कराना। १४५) तत्पश्चात्, अण हि ल्ल पुर पहुँच कर उन स्वजनोंने यह बात वाग्भ ट और आम्र भट को सुनाई । उन्होंने वैसा ही नियम ग्रहण करके जीर्णोद्धारका कार्य आरंभ किया। दो वर्षमें श्री शत्रु ज य का वह प्रासाद बन कर तैयार हुआ और उसकी खबर देनेके लिये आये हुए मनुष्यके बधाई देने बाद ही दूसरा मनुष्य आया जिसने कहा कि ' प्रासाद तो फट गया है ! ' तपे हुए सीसेके जैसी उसकी वाणीको कानोंमें सुन कर श्री कुमार पाल भूपालसे आज्ञा ले कर मंत्री स्वयं वहां जानेको उद्यत हुआ। श्रीकरणकी जो अपनी मुद्रा (मंत्रीके पदकी मुहर) थी वह महं क प र्दी को समर्पित की और स्वयं ४ सहस्र घोड़े ले कर शत्रुज य की उपत्यकामें पहुँचा । वहाँ अपने नामसे बा ह ड पुर नामका नया नगर वसाया। शिल्पियोंने प्रासादके फट जानेका कारण बताते हुए कहा कि सभ्रम प्रासादमें पवन घुस कर निकलता नहीं, इस लिये मन्दिर फट जाता है; और जो प्रासाद भ्रमहीन बनाया जाय तो बनाने वाला निवंश हो जाता है [ ऐसा शास्त्रका विधान है ] । मंत्रीने यह सुन कर ऐसा विचार किया कि निर्वंश होना अच्छा है । इससे धर्म कार्य ही हमारा वंश होगा और पूर्व कालमें जीर्णोद्धार कराने वाले भ र त आदिकी पंक्तिमें हमारा भी नाम उल्लिखित होगा। इस प्रकार अपनी दीर्घदर्शिनी बुद्धिसे सोच कर उस मंत्रीने भ्रम और दीवालके बीचमें पत्थर भरवा दिये और प्रासादको निर्धम बनवाया। तीन वर्षमें प्रासाद पूरा हुआ । उसके कलश दण्ड आदिकी प्रतिष्ठाके समय पत्त न के संघको निमंत्रित किया और महामहोत्सवके साथ सं० १२११ में मंत्रीने ध्वजारोपण कराया। पाषाणमय बिंब (मूर्ति) का परिकर मम्मा णी की खानोंके किंमती पत्थरका बनवा कर स्थापित किया। श्री बा ह ड पुर में राजाके पिताके नामसे श्री त्रिभुवन पाल विहार बनवा कर उसमें पार्श्वनाथकी स्थापना कराई । तीर्थपूजाके लिये नगरके चारों ओर २४ बागीचे बनवाये, नगरका पक्का कोट बनवाया और देवके पूजारियोंके ग्रास और वास आदिकी व्यवस्था कर, वह सब कार्य पूरा किया । इस तीर्थोद्धारके व्ययमें [ यह बात प्रसिद्ध है कि]१९१. जिसके, मंदिर बनाने में १ करोड ६० लाख व्यय हुआ है, विद्वान् लोग उस श्री वा ग्भ ट दे व की [ पूरी ] वर्णना कैसे करें !
इस प्रकार शत्रुञ्जयके उद्धारका यह प्रबंध समाप्त हुआ।
Jain Education २७-२८al
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