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________________ प्रकरण १२८-१३१] कुमारपालादि प्रबन्ध [९५ कुमारपालका राजगादीपर बैठना । १२९) प्रातःकाल वह बहनोई अपना सैन्य तैयार करके, उसके साथ, उसको राजाके महलमें ले आया। अभिषेककी परीक्षाके लिये पहले एक कुमारको पट्टे पर बैठाया । उसको चादरके आँचलोंको भी ठीक सम्हालते न देख फिर एक दूसरेको बैठाया । उसको हाथ जोड़ कर बैठा हुआ देख कर उसे भी अप्रमाणित किया। फिर कान्हड़देव की अनुज्ञासे कु मा र पाल, वस्त्र संवरण करके ऊँचेसे श्वास लेता हुआ और हाथमें तलवार कॅपाता हुआ, सिंहासन पर जा बैठा । पुरोहितने मंगलाचार किया, नगाड़े बजे । श्रीमान् कान्हड़देव ने पंचांगोंसे पृथ्वी चूम कर प्रणाम किया । उस समय उसकी अवस्था पचास वर्षकी हुई थी। कुमारपालने राजद्रोहियोंका उच्छेद किया। १३०) कुमार पाल स्वयं प्रौद होनेके कारण, तथा देशान्तर भ्रमणसे विशेष निपुणता प्राप्त करनेके कारण, सब राज्यशासन स्वयं करने लगा। राज-वृद्धोंको यह अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मिल कर उसे मारना चाहा और अन्धकार वाले दरवाजेमें घातकोंको रख दिया। पूर्वजन्मके शुभ कर्मोंसे प्रेरित किसी आप्तने उस वृत्तान्तको बता कर उसे अन्य द्वारसे मकानमें प्रवेश कराया। बादमें उन प्रधानोंको उसने शीघ्र यमपुरीको भेज दिया । वह भावुक मण्डलेश्वर ( का न्ह ड देव), राजा अपना साला होनेके कारण, तथा अपने आपको राजप्रतिष्ठाचार्य समझ कर, राजाकी दुरवस्थाके [ उन पिछले ] मर्मोको कहा करता । इस पर किसी समय राजाने कहा-' हे भावुक, तुम्हें इस प्रकार राज-दरबारमें सर्वदा पुरानी दुरवस्थाके मौका मजाक नहीं करना चाहिये। अबसे ऐसी बातें सभामें न कहना, विजनमें चाहे यथेच्छ कहते रहना ।' राजाके इस प्रकार उपरोध करने पर भी, उत्कट अवज्ञावश हो कर वह बोला कि- 'रे अनात्मज्ञ ! अभी इतनेहीमें अपने पैर उखाड रहा है ?' इस प्रकार बकता हुआ, मानों मोतहीकी इच्छासे, औषधकी भाँति उसके पथ्य वचनको भी उसने ग्रहण नहीं किया । [ उस क्षण तो ] राजाने अपने भावका संवरण करके अपनी मनोवृत्ति छिपा ली । दूसरे दिन राजाके संकेत प्राप्त मल्लोंने उसका अंग तोड़ मरोड़ कर, दोनों आँखें निकाल ली और उसे उसके मकान पर भिजवा दिया। १७८. इस विचारसे कि पहले मैंने ही इसे जलाया है अतः तिरस्कार करने पर भी यह मुझे नहीं जलायेगा, इस भ्रमके वश हो कर दीपककी तरह, राजाको कोई अंगुलिके पोरसे भी न छुए। यह विचार कर, सामन्त लोग, उस दिनसे अत्यधिक भयचकित चित्त हो कर, प्रतिपद पर उसकी सेवा करने लगे। १३१) राजाने पूर्वमें उपकार करने वाले उ द य न के पुत्र वाग्भ ट देव को अपना महामात्य बनाया और आलि ग को तथा महं० उ द य न दे व को बड़े (वृद्ध ) प्रधान बनाये । कुमारपालका चाहमान राजा आनाकके साथ युद्ध । १३२) चा हड़ नामक एक कुमार सिद्ध राज का प्रतिपन्न (माना हुआ) पुत्र था। वह कुमार पाल देव की आज्ञा न मान कर सपाद ल क्ष के राजाके पास सैनिक हो कर चला गया। वह श्री कुमार पाल के साथ विग्रह करनेकी इच्छासे, वहाँक सभी सामन्त लोगोंको लाँच (रिश्वत ) आदिके द्वारा अपने वशमें करके, प्रबल सेनाके साथ सपा द ल क्ष के राजाको ले कर [ गूर्जर ] देशकी सीमा पर चढ आया। अब, चौलुक्य चक्रवर्ती (कुमार पाल) ने भी, प्रतिशत्रु बन कर, उस सैन्यके सामने अपना सैन्यसमूह जमा किया। जब लड़ाईका दिन तै हुआ और सीमायें निष्कंटक की गई तथा चतुरङ्ग सेना सज्जित की गई, तो उसी समय पट्ट For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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