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९४] प्रबन्धचिन्तामणि
[तृतीय प्रकाश राजाके आदमी पैरोंके चिह्नके अनुसार वहाँ पहुँचे, परन्तु उसका वहाँ पाना असंभव जान कर और भालेकी नोकको उसमें खोंच कर देखने पर भी कुछ न मालूम कर, वे वहाँसे वापस लौट गये । दूसरे दिन खेतवालोंने उस स्थानसे उसे बहार निकाला । वह सवेरे ही वहाँसे आगे चलता हुआ एक वृक्षकी छायामें बैठ कर विश्राम लेने लगा, तो क्या देखता है कि, एक चूहा निभृतभावसे बिलमेंसे चाँदीका सिक्का बाहर ला कर रख रहा है। जब वह इस प्रकार इक्कीस सिक्के निकाल चुका, तो उनमेंसे फिर एक वापस उठा कर वह बिलमें ले गया। उसके बिलमें घुसने पर बाकीके सब सिक्के उठा कर कु मार पाल ने ले लिये और वह ज्यों ही एकान्तमें जा कर देखता हैं तो वह चूहा बाहर आ कर उन सिक्कोंको न पा कर वहीं छटपटा कर मर गया । कु मार पाल उसके शोकसे मनमें बड़ा व्याकुल हो कर चिरकाल तक परिताप करता रहा । फिर आगे चलते हुए रास्तेमें किसी [धनी पुरुष] की बहूने, जो ससुरालसे पीहर जा रही थी, देखा कि राहखर्चके अभावमें तीन दिनसे भूखे मरते उसका पेट फक पड़ गया है । उसने भाईकी तरह स्नेहसे कर्पूरकीसी सुगंधिवाले चावलके करंबेसे उसको सुतृप्त किया।
१२८) बादमें, विविध देशान्तरोंका भ्रमण करता हुआ, वह स्तंभ तीर्थ में महं० श्री उदयन के पास कुछ मार्गखर्च माँगनेके लिये आया। यह सुन कर कि वह पौषधशालामें है, तो वह वहाँ आया। उसे देख कर उद य न ने हे म चंद्रा चार्य से [ उसके बारेमें ] पूछा । उन्होंने कहा कि- इसके अंगके लक्षण लोकोत्तर हैं। यह भविष्यमें चक्रवर्ती राजा होगा । आजन्म दरिद्रतासे सताये हुए उस क्षत्रियने जब इस बातको असंभव कहा, तो उन्होंने यह लिख कर एक पत्रक मंत्रीको और एक उसको दिया कि- ' यदि सं० ११९९ कार्तिक वदि (B. P सुदि ) २ रविवार हस्त नक्षत्रों, आपका पट्टाभिषेक न हों तो, इसके बाद, मैं शकुन देखना ही त्याग दूंगा।' फिर वह क्षत्रिय उनकी इस कला-कौशल वाली चातुरीसे मनमें चकित हो कर बोला कि- 'यदि यह बात सच हुई तो, आप ही राजा रहेंगे और मैं आपका चरणरेणु हो कर रहूँगा'- और इसकी प्रतिज्ञा की । श्री हे मा चार्य ने कहा कि- 'नरकरूप अन्तिम फल देनेवाली राज्यलिप्सासे हमें कोई मतलब नहीं है । आप कृतज्ञ हो कर यह बात न भूलियेगा और जैन शासनका भक्त हो कर सदा रहियेगा।' इस अनुशासनको सिर माथे रख कर और आज्ञा ले कर फिर मंत्रीके साथ उसके घर गया। वहां स्नान, पान, भोजन आदिसे सत्कृत हो कर और राह-खर्च पा कर, बिदा ले मा ल व देश में आया । वहाँ कु डङ्गेश्वर प्रासादमें पट्टिका पर १७७. संवत् ११९९ का वर्ष पूर्ण होने पर, हे विक्र मा दि त्य, तुम्हारे ही समान एक कु मा र पाल
नामक राजा [ जैन धर्मका पालन करने वाला ] होगा। इस प्रकारको गाथा लिखी हुई देख कर मनमें बडा विस्मित हुआ । [इस समय] गूर्ज राधि पति सिद्धराज का स्वर्गवास सुन कर वहाँसे लौटा । उसका सब खर्च समाप्त हो चुका था। उसी नगरमें, किसी बनियेकी दूकान पर [बिना कुछ दिये] भोजन करनेके बाद उसको बंदी किया गया। वह व्याकुल हो कर रोने लगा तो, फिर नगरके लोगोंके इकट्ठा होने पर दोनोंका मरण होगा यह जान कर उस बनियेने कहा कि-'मेरी बनावटी मूर्छा है इसे तुम दूर करनेका प्रयत्न करने लगो' उसके इस प्रकारके बुद्धिवैभवसे अपनेको प्रत्युज्जीवित मानकर, कुमार पाल ने वैसा किया और उस उपायसे अपना कष्ट छुटा कर वह अ ण हि ल्ल पुर में रातके समय पहुँचा। पासमें कुछ न होनेके कारण कंदोईकी दूकान पर जा कर, उसका दिया हुआ कुछ खाया । बादमें अपने बहनोई राजकुल श्री का न्ह ड़ दे व के घर गया। जब कान्ह ड़ दे व राजमंदिरसे आया तो उसे आगे आगे करके घरके भीतर ले गया। फिर अच्छा खाना आदि खा कर स्वस्थ हो कर सो गया।
१ यहां पर यह क्या बात कही गई है सो ठीक समझमें नहीं आती । ग्रंथकारका लेख बहुत अस्पष्ट और संक्षिप्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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