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________________ ९. कुमारपालादि प्रबन्ध। कुमारपालके पूर्वजादि। १२६) अब परम आहेत श्री कुमार पाल का प्रबंध प्रारंभ किया जाता है-अण हि ल्ल पुर नगरमें जब कि महाराज बड़े भी म दे व राज्य शासन कर रहे थे, उस समय श्री भीमेश्वरके नगरमें ( अर्थात् पत्तनमें) बकुला देवी' नामकी एक वेश्या रहती थी जो नगर प्रसिद्ध रूप और गुणकी पात्र थी। कुलवधूओंसे भी उसकी अधिक शीलमर्यादा कही जाती थी । राजाने यह सुना तो उसकी परीक्षा लेनेके विचारसे उसे अपने अनुचरोंके द्वारा सवालाख कीमतकी एक कटारी, अपनी रक्षिता बनानेके इरादेसे, इनामके तौर पर भिजवाई। [कार्यान्तरकी] उत्सुकता वश राजाने उसी रातको बाहर जा कर प्रस्थान (यात्राके) लग्नको सिद्ध किया। विग्रह (युद्ध) के निमित्त दो वर्ष तक उसको मा व ल देश में रहना पड़ा। पर वह ब कु ला देवी, उसके भेजे हुए उक्त इनामके अनुसार, अन्य सब पुरुषोंको छोड़ कर शील आचारका पालन करती रही । निस्सीम पराक्रमशाली भीम ने तृतीय वर्षमें अपने स्थान पर आ कर जनपरंपरासे उसकी इस प्रवृत्तिको सुन कर उसे अपने अन्तःपुरमें दाखिल कर लिया। उसको एक पुत्र हुआ जिसका नाम हरिपाल देव था। उसका पुत्र त्रिभुवन पाल देव हुआ और उसका पुत्र श्री कुमार पाल देव । वह जब धर्मका जानने वाला न था तब भी कृपालु और परस्त्रियोंका भाई बना हुआ था। सिद्ध राज से सामुद्रिक जानने वालोंने कहा था कि-'आपके बाद यही राजा होगा। इससे वह उसे हीन जातीय मान कर, उसके प्रति असहिष्णु बन, सदा उसके विनाशका अवसर खोजा करता। वह कु मार पाल इस बातको कुछ कुछ समझ कर, राजासे मनमें शंकित बना हुआ, तापसवेष धारण कर, नाना प्रकारसे, देशान्तरोंमें भ्रमण करता रहा । कुछ साल इस तरह बिता कर फिर नगरमें आया और किसी मठमें ठहरा । सिद्धराजके भयसे कुमारपालका मारे मारे फिरना। १२७) इसके अनन्तर, श्री कर्णदेव के श्राद्धके अवसर पर श्रद्धालु सिद्ध राज ने सब तपस्वियोंको [ भोजनके लिये ] निमंत्रित किया । उनमें से प्रत्येकके पैर धोते समय, कु मा र पाल नामक तपस्वीके भी कोमल चरणतलको हाथसे स्पर्श करता हुआ, उसमेंकी ऊर्ध्व रेखा आदि चिन्होंसे उसने जाना कि-' यही वह राजा होने योग्य है'- और इस लिये निश्चल दृष्टिसे उसे देखता रहा । उसकी इस चेष्टासे [ अपने प्रति ] उसे विरुद्ध समझ कर, उसी समय वेष बदल करके, कौवेकी भाँति, वह अदृश्य हो गया; और आ लिग नामक कुम्हारके घरमें जा छिपा । वहां मिट्टीके बर्तन पकानेके लिये आवाँ बनाया जा रहा था, उसीमें कुम्हारने छिपा कर, पीछा करने वाले राजपुरुषोंसे उसे बचाया । फिर वहाँसे धीरे धीरे आगे चला तो, उसने खोजनेके लिये आये हुए राजपुरुषोंको सामने देखा । उससे त्रासित हो कर, नजदीकमें कोई दुर्गम ऐसी छिपने लायक भूमिको न पा कर किसीएक खेतमें जा खड़ा हुआ । वहाँ पर, खेतके रखवालोंने, खेतकी रक्षाके लिये कांटेदार वृक्षोंकी डालियाँ काट कर जो इकट्ठी कर रखी थीं, उन्हींके बीचमें उसे छिपा दिया और वे अपनी जगह पर आ कर बैठ गये । १ इसके नाममें कुछ पाठभेद मिलता है-किसी प्रतिमें 'चउला देवी' ऐसा भी पढ़ा जाता है-परन्तु वह 'ब' और 'च' के बीचमें लिखने वालोंके भ्रमके कारण हुआ मालूम देता है। 'बकुलादेवी' का अपभ्रंश उच्चार 'बउलादेवी' होता है और 'ब' की जगह 'च' पढनेसे 'चउलादेवी' नाम बन गया मालूम देता है । अधिकतर प्रतियोंमें 'बकुलादेवी' नाम ही मिलता है और यही शुद्ध प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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