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प्रबन्धचिन्तामणि
[ तृतीय प्रकाश
और वे अन्तर्धान हो गये । फिर वह स्त्री उस वृक्षकी छायाको रेखांकित करके, उसके भीतर पड़ने वालीं [ सभी ] औषधियोंके अंकुरोंको उखाड़ उखाड़ कर वृषभके मुँहमें डालने लगी । उस अज्ञात स्वरूप औषधिके मुँहमें पड़ते ही वह बैल फिर मनुष्य हो गया । अज्ञात स्वरूप हो कर भी, औषधिने जैसे अभीष्ट कार्य किया, वैसे ही कलियुगमें मोहके कारण, वह पात्र - परिज्ञान तिरोहित होने पर भी, भक्तियुक्त हो कर सब दर्शनोंका आराधन करनेसे, अविदित स्वरूप-ही-से मुक्तिदायक हो जाता है, यह निश्चय है । इस प्रकार श्री हेम चंद्राचार्य ने जब सर्व दर्शनके सम्मत होनेका उपदेश दिया तो श्री सिद्धराज ने फिर सब धर्मोका समान आराधन किया ।
इस प्रकार यह सर्व दर्शन मान्यता प्रबंध समाप्त हुआ ।
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सिद्धराजका प्रजाजनोंके साथ उदार व्यवहार ।
११२) एक दूसरी बार रातमें, राजा कर्ण मे रु प्रासादमें नाटक देख रहा था । वहाँ पर कोई चना बेचने वाला एक गरीब बनिया भी चला आया और वह राजाके कन्धे पर हाथ रख कर देखने लगा | राजा उसके इस अभिनय (व्यवहार) से मनमें प्रसन्न हो रहा, और बार बार उसका दिया हुआ कर्पूर मिश्रित पानका बीड़ा आनंदके साथ लेता रहा । नाटकके विसर्जन होने पर, राजाने अनुचरोंके द्वारा उसका घर आदि अच्छी तरह जान लिया और फिर अपने महलमें आ कर सो गया । सवेरे उठ कर प्रातःकृत्य कर लेने बाद, सर्वावसर ( राजसभा) के मिलने पर, राजाने सभामंडपको अलंकृत किया और उस चना बेचने वाले बनियेको बुलाया । राजाने उससे [ व्यंग में ] कहा कि -' रातमें तुमने जो मेरे कन्धे पर हाथ रखा था उससे मेरी गर्दन में दर्द हो रहा है ' – तो उस तत्कालोत्पन्न मति वाले ( हाजिर जवाब ) बनियेने कहा कि - ' महाराज ! आसमुद्र विस्तृत ऐसी पृथ्वीके भारको कन्धे पर उठा रखनेसे यदि स्वामीके कन्धेमें कोई पीड़ा नहीं होती तो मुझ समान तृण - मात्र निर्जीव बनियेके भारसे स्वामीके कन्धों में क्या पीड़ा होगी !' उसके इस उचित उत्तरको सुन कर राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और बदले में उसको इनाम दे कर बिदा किया |
इस तरह यह चना बेचनेवाले बनियेका प्रबंध समाप्त हुआ ।
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लक्षाधिपतिको क्रोडपति बना देना ।
११३) एक दूसरी रातको, राजा कर्ण मे रु प्रासादसे नाटक देख कर लौट रहा था, तब [ राजमार्ग में ] किसी व्यवहारीके घर पर बहुत-से दीपक जलते हुए देख कर पूछा कि - ' यह क्या है ?' उसने कहा कि ये लक्षप्रदीप हैं । राजाने उसको धन्य कहा और वह अपने महल में चला गया । रात्रिको व्यतीत कर [ अपने नगरमें ऐसे प्रजाजन है इस विचारसे ] अपनेको धन्य मानता हुआ, सबेरे उसे राजसभामें बुला कर आदेश किया कि-' इन प्रदीपोंको सदा जलाते रहनेसे तुमको सदा ही अग्निका भय रहता है, तो कहो कि तुमारे पास कितने -लाखका धन है ' । उत्तरमें उसने निवेदन किया कि - ' वर्तमानमें चौरासी लाख है ' । इस पर मनमें अनुकंपित हो कर राजाने कृपापूर्वक अपने ख़जानेसे १६ लाख निकाल कर दे दिया और उसके मकान पर [ दीपकोंके बदले ] क्रोडपति होने का सूचक कोटिध्वज फहराया गया ।
इस तरह यह षोडशलक्षप्रसाद प्रबंध समाप्त हुआ ।
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