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प्रकरण ११०-१११]
पत्तनके वसाह आभडका वृत्तान्त ।
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करने लगा। किसी अवसर पर, वह किसी गाँवको जा रहा था, तो उसने रास्तेमें बकरियोंका एक झुंड जाते देखा । उसमें एक बकरके गलेमें पाषाणका एक खण्ड बन्धा देखा, जिसको रत्नपरीक्षक होने के कारण, परीक्षा करके देखा तो वह सच्चा रत्न मालूम दिया । फिर उस रत्नके लोभसे, मूल्य दे कर उस बकरीको उसने खरीद लिया । मणिकार ( मणियारे ) के पाससे उस रत्नको सान पर चढ़वा कर उसे देदीप्यमान बनवाया और फिर श्री सिद्धराज के मुकुट बनानेके अवसर पर, एक लाख मूल्य पर राजा - ही को दे दिया । उसी मूल धनसे उसने एक बार बिकनेको आये हुए मंजिष्ठाके कई बोरे खरीदे और जब बेचनेके समय उन्हें खोलकर देखा तो समुद्रके चौरोंसे छिपाने के लिए, व्यापारियोंने उनमें सोनेकी पट्टियाँ छिपा रखी हुई मालूम दी । फिर उसने सब बोरे खोल कर उनमेंसे वे पट्टियाँ निकला लीं । इस तरह फिर वह सारे नगर में मुख्य ऐसा सिद्धराज का मान्य ( नगर सेठ ) और जिन - धर्मकी प्रभावना करने वाला [ प्रसिद्ध श्रावक हुआ । प्रति दिन, प्रति वर्ष, स्वेच्छानुसार जैन मुनियोंको अन्न वस्त्र आदि दिया करता और गुप्तरूपसे स्वदेश और विदेशमें नये नये धर्मस्थान बनवाता तथा पुराने धर्मस्थानोंका जीर्णोद्धार करवाता रहा । पर किसी पर उसने अपनी प्रशस्ति नहीं लिखवाई । [ कहा भी है कि ] —
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१६७. लतासे आच्छन्न वृक्षकी नाई और मृत्तिकासे आच्छादित बीजकी नाई प्रच्छन्न ( गुप्तरूप से ) किया हुआ सुकृत कर्म प्रायः सैंकड़ों शाखाओंवाला विस्तृत हो जाता है ।
इस प्रकार यह वसाह आभडका प्रबन्ध समाप्त हुआ ।
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सिद्धराजकी तत्त्वजिज्ञासा और सर्वदर्शन प्रति समानदृष्टि ।
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१११) एक दूसरी बार, श्री सिद्धराज संसार सागरको पार करने की इच्छासे, सर्व देश के सर्व दर्शनों में से, प्रत्येक से देवतत्त्व, धर्मतत्त्व, और पात्रतत्त्वकी जिज्ञासा से पूछने लगा, तो मालूम हुआ कि, वे प्रत्येक अपनी स्तुति और दूसरेकी निंदा कर रहे हैं। इससे उसका मन [ खूब ] संदेह - दोलारूढ़ हो गया । श्री हे माचार्य को बुला कर उनसे विचारणीय कार्यको पूँछा । आचार्यने चतुर्दश विद्याओंके रहस्यका विचार करके, इस प्रकार एक पौराणिक निर्णय कह सुनाया कि - ' पहले जमाने में किसी व्यवहारी [ गृहस्थ ] ने अपनी पहली परिणीत पत्नीको छोड़ कर किसी रखेलिनको अपना सर्वस्व दे दिया । इससे उसकी पूर्व पत्नी, सर्वदा ही, उसको अपने वशमें करने के लिये अभिचार ( मंत्र-तंत्र आदि) के उपाय पूछा करती । किसी गौड (बंगाल) देशीय [ जादुगर ] ने बताया कि - " तुम्हारे पतिको मैं ऐसा कर दूँ कि तुम उसे फिर रस्सी में बाँधे रखो " ऐसा कह कर, उसने कोई एक ऐसी अचिन्त्यवीर्य औषधि ला दी और कहा कि - " इसे भोजनमें खिला देना "। ऐसा कह कर वह चला गया । कुछ दिनोंके बाद जब क्षयाह ( श्राद्धका दिन ) आया तो उस स्त्रीने वैसा ही किया - पतिको वह औषधि खिला दी । फलस्वरूप वह ( पति ) साक्षात् बैल हो गया । उसका फिर कोई प्रतीकार न जान कर वह, सारी दुनियाकी झिड़कियाँ सहती हुई, अपने दुश्चरितके ऊपर शोक करने लगी । एक बार • ग्रीष्म कालके ] दोपहर के समय, सूर्यके कठोर किरणोंसे खूब संतप्त हो कर भी, किसी शाद्वल भूमिमें वह अपने उस पशुरूप पतिको चरा रही थी और किसी वृक्षके नीचे बैठ कर खूब निर्भर भावसे विलाप कर रही थी । अकस्मात् उसने आकाशमें कुछ आलाप सुना । पशुपति (शिव) भवानी के साथ विमान में बैठे हुए उस समय वहाँसे निकले । भवानीने उसके दुःखका कारण पूछा। इस पर शिवने वह वृत्तांत ज्यों का त्यों कह सुनाया । फिर भवानी के आग्रह करने पर शिवने यह भी बताया कि, उसी वृक्षकी छाया मैं, पुरुष बननेकी औषधि है;
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