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________________ ८२] प्रबन्धचिन्तामणि [ तृतीय प्रकाश बजवाये गये, डंकोंकी चोटसे मानों आकाशका पेट गुडगुडा रहा था और उत्तम प्रकारकी दुंदुभियोंके नादसे दिगंतराल भरा जा रहा था । राजाने स्वयं अपने हाथका अवलंबन दे कर, 'हे वादि चक्रवर्ती, पधारिये ! ' ऐसी स्तुतिपूर्वक उन्हें राजसभासे प्रस्थान करवाया । बा ह ड नामक उपासकने उस समय तीन लाख [द्रम्म ] याचकोंको दान किये । इस तरह जगत्के आनंद स्वरूप कन्द ( मूल ) के कन्दल ( अंकुर ) समान मंगलके बारंबार उच्चारित होने पर, उसी बा ह ड द्वारा बनवाये गये श्री महावीर देवके प्रासाद ( मन्दिर ) में, देवको नमस्कार करने बाद, उसीकी वसति ( उपाश्रय ) में जा कर उन्होंने आश्रय लिया । सूरिकी अनिच्छा होने पर भी राजाने उनको पारितोषिकके रूपमें छाला आदि बारह गांव भेंट दिये । [ भिन्न भिन्न समर्थ आचार्यो द्वारा की गई ] उनकी स्तुतिके कुछ श्लोक इस प्रकार हैं १६१. जिनके प्रसाद - ही का मानों सुखप्रश्न के समय दर्शन ( श्वेतांबर संप्रदाय) उच्चारण करता है, उन वस्त्रप्रतिष्ठाचार्य श्री देव सूरि को नमस्कार है । - इस प्रकार श्री प्रधुम्ना चार्य ने कहा । १६२. यदि सूर्य के समान देवाचार्य, कुमुद चंद्र को न जीत पाते तो कौन श्वेतांबर, संसारमें कटिमें वस्त्र पहनने पाता । - इस प्रकार हे मा चार्य ने कहा । १६३. जिस नग्नने कीर्तिरूपी कंथा उपार्जन करके अपना व्रतभंग किया था, देव सूरि ने उस कंथाको छीन कर उसे निग्रंथ (नंगा) कर दिया । - इस प्रकार श्री उदयप्रभ देव ने कहा । १६४. अभी तक भी जिन्होंने लेख -शालाका त्याग नहीं किया उन देवसूरि ( बृहस्पति ) के साथ, वादविद्याको जानने वाले प्रभु देव सूरि की, तुलना कैसे की जाय । - इस प्रकार श्री मुनि देवाचार्य ने कहा । १६५. जिनकी प्रतिभाके घाम-तेजसे [ त्रस्त हो कर ] कीर्तिरूपी योगवस्त्रका त्याग कर देने वाले [ उस ] नग्न [ दिगंबर ] को भारतीने मानों लाजके कारण छोड़ दिया, वह देव सूरि तुम्हारा कल्याण करें । १६६. अशेष केवलियोंकी भुक्ति स्थापन कर जो सत्राकार बने तथा स्त्रियोंकी मुक्तिके युक्त उत्तर द्वारा मोक्ष तीर्थ बने, और नग्नको जीत लेने पर श्वेताम्बरशासन के प्रतिष्ठागुरु बने, उन प्रभु श्री देव सूरि की महिमा, देवता और गुरुकी अपेक्षा भी अपरिमित है । - इस प्रकार दो श्लोक श्री मेरुतुंग सूरि ने कहे । इस प्रकार यह देवसूरिका प्रबन्ध समाप्त हुआ । * पत्तनके वसाह आभडका वृत्तान्त । ११० ) इसके बाद, पत्तन का रहने वाला, जिसका वंश विलुप्त हो गया है ऐसा, आ भड नामक एक वणिक्पुत्र कंसारेकी दुकान पर, गागर घिसनेका काम किये करता था । उसको वहां रोज पाँच विंशोपकका उपार्जन होता था । वह अपना सारा दिन उस काममें व्यतीत कर, दोंनों शाम प्रभु श्री हे मसूरि के चरणोंके पास बैठ कर प्रतिक्रमण किये करता था । स्वभाव - ही से चतुर होनेके कारण उसने अगस्त्य और बौद्ध मत आदिके ' रत्न परीक्षा ' के ग्रंथोंको पढ़ डाला और रत्नपरीक्षकों के निकट रह कर उस परीक्षा में दक्ष हो गया। किसी समय, श्री हेम चंद्र मुनीन्द्रके निकट उसने, धनाभावके कारण, स्वल्प प्रमाण में परिग्रह - परिमाण व्रतका नियम लेना चाहा । सामुद्रिक विद्याके जानकार प्रभुने भविष्य में उसके भाग्य वैभवका खूब प्रसार होना जान कर, तीन लाख द्रम्मसे अधिक द्रव्य न रखनेका उसे नियम कराया । इसके बाद, संतोष पूर्वक वह अपना व्यवहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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