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________________ प्रकरण १०८-१०९] वादी श्रीदेवसूरिका चरित्रवर्णन [८१ उसके इस अपशब्दको सुन कर कि 'वाणी बंद हो जाती है '- सभ्य लोग उसे अपने ही हाथों बंधा समझ कर बड़े प्रसन्न हुए । इसके बाद देवा चार्य ने राजाको, यह आशीर्वाद दिया१६०. हे चालुक्य महाराज ! तुम्हारा यह राज्य और यह जिनशासन चिरकाल तक प्रवर्तित रहें। ( राज्यपक्षमें पहला अर्थ- ) जो राज्य शत्रुओंको शान्ति नहीं प्राप्त करने देता है, उज्ज्वल आकाशकी-सी उल्लसित कीर्तिकी प्रभासे जो मनोहर हो रहा है, न्यायमार्गके प्रसारकी पद्धतियोंका जो गृह बना हुआ है और जिसमें परपक्षके हाथियोंका सदैव मद उतारनेवाले ऐसे कौन हाथी बलवान् नहीं है। (जिनशासनपक्षमें दूसरा अर्थ-) जो जिनशासन नारियों ( स्त्रियों) को मुक्तिपद प्रदान करता है, श्वेतवस्त्रोंको धारण करनेवाले यतियोंकी उल्लसित कीर्तिसे मनोहर लग रहा है, नय मार्ग ( जैन तत्त्व पद्धति ) के विविध प्रस्तार और भाङ्गियोंका गृहरूप है और जिसमें अन्य मतवादियोंके गर्वका जय करनेवाले केवलज्ञानी कभी भी भोजन नहीं करते ऐसा विधान नहीं है-वह जिनशासन चिरंजीव रहो। इसके बाद, वादी कुमुद चंद्र ने केवलि-भुक्ति, स्त्री-मुक्ति और चीवर-सिद्धिके निराकरण रूप अपने पक्षके उपन्यासमें, कबूतर पक्षीकी भाँति मन्द मन्द और बार बार स्खलित वाणीसे बोलना शुरू किया। इसे देख कर सभ्यलोग, ऊपरसे तो उसे उत्साहपरक वचन कह रहे थे और अन्दर दिलमें हंस रहे थे। इस प्रकार कितनाक उपन्यास (स्वपक्ष स्थापन) करनेके बाद, अन्तमें [दे वा चार्य को लक्ष्य करके कहा कि ] 'अब आप बोलिये ' । दे वा चार्य ने प्रलय कालमें उन्मीलित प्रचण्ड पवनसे विक्षुब्ध समुद्रके तरंगाघातके समान गंभीर वाणीसे, उत्तराध्य य न सूत्र की बृहद्वृत्तिमें कथन किये हुए चौरासी विकल्पोंका उपन्यास करना प्रारंभ किया। इसे देख कर, भास्वत् प्रकाशके प्रसारसे म्लान हो जाने वाले कुमुद-रात्रिविकासी कमल की भाँति निष्प्रभ हृदय कुमुद चंद्र ने भयसे चित्तमें भ्रान्त हो कर, उस बातको समझनेमें असमर्थ बन कर, फिरसे उसी उपन्यासके दुहरानेकी प्रार्थना की। श्री सिद्ध रा ज के तथा और सभ्योंके निषेध करने पर भी, उन्होंने उसे अप्रमेय प्रमेय लहरियोंके द्वारा प्रमाण-समुद्रमें डुबोना शुरू किया। इस तरह निरंतर वाक्प्रवाह चलने पर, सोलहवें दिन अकस्मात् दे वा चार्य का कण्ठ रुद्ध हो गया । तब मंत्रशास्त्रविद् श्री य शो भद्र सूरि ने, जिन्होंने कुरु कुल्ला दे वी के मंदिरमें अतुलनीय वर प्राप्त किया हुआ था, उनकी कण्ठनालीसे क्षणभरमें क्षपणक (दिगंबर )के किये गये अभिचारके प्रभावसे पड़ा हुआ केशोंका गुच्छा बाहर निकाल दिया। इस विचित्र व्यापारके निरीक्षणसे चतुर लोगोंने श्री य शो भद्र सूरि की भूरि प्रशंसा की और कुमुद चंद्र की खूब निंदा की। इस प्रकार ( पहलेने ) प्रमोद और ( दूसरेने ) विषाद धारण किया। इसके बाद, देव सूरि ने पक्षके उपन्यासके उपक्रममें 'कोटाकोटि' शब्द कहा। कुमुद चंद्र ने उस शब्दकी व्युत्पत्ति पूछी । तब का क ल पंडि त ने, जिसके कण्ठमें आठों व्याकरण लोट रहे थे, शा क टा य न व्या क रण में कहे हुए 'टाप् टीप्' सूत्रसे निष्पन्न 'कोटाकोटिः' 'कोटीकोटि कोटिकोटिः' इन तीनों सिद्ध शब्दोंका निर्णय सुनाया। पहले-ही-से 'वाचस्ततो मुद्रिता' इस कहे हुए अपशब्दके प्रभावसे उसका मुख मुद्रित (बन्द ) हो गया और फिर स्वयं ही बोला कि-' में श्री देवा चार्य से जीता गया। श्री सिद्ध राज ने उसे पराजित कह कर अपद्वारसे बाहर कर दिया । इस पराभवके कारण उसका सिर फट गया और वह मर गया। ___ इसके अनन्तर श्री सिद्धराज ने आनन्द उल्लसित मनसे देवा चार्य के प्रभावकी ख्याति करनेकी इच्छा की । उनके सिर पर चार श्वेतच्छत्र धारण करवाये गये, खूब सुंदर चामर ढलवाये गये, शंखोंके युगल Jain Education २१-२२॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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