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________________ ८०] प्रबन्धचिन्तामणि [नृतीय प्रकारा श्री हेमचंद्राचार्य ने सुना कि श्री म य ण ला देवी कुमुद चंद्र की पक्षपातिनी है और सभाके अपने संपर्कवाले सभ्योंसे उसकी जयके लिये नित्य अनुरोध कर रही है, तो उन्होंने, उन्हीं सभासदोंसे यह वृत्तान्त कहलवाया कि 'वादस्थल पर दिगंबर लोक तो स्त्रीकृत सुकृत्यको अप्रमाणित करेंगे और श्वेताम्बर प्रमाणित करेंगे।' यह सुन कर रानीने व्यवहारबहिर्मुख उस दिगंबर परसे अपना पक्षपात हटा लिया। इसके बाद, भाषोत्तर (वादका विषय ) लिखानेके लिये कुमुद चंद्र तो पालकीमें बैठ कर, और पण्डित रत्न प्रम पैदल ही चल कर, राजाके अक्षपटल (न्यायविभाग) कार्यालयमें आये। वहांके अधिकारियोंको कुमुद चंद्र ने अपनी यह भाषा ( वादके विषयमें निजकी प्रतिज्ञा ) लिखवाई १५७. केवली होने पर [ मनुष्य ] भोजन नहीं करता, चीवर सहित [ मनुष्य ] निर्वाण नहीं पाता और स्त्रीजन्ममें मुक्ति नहीं मिलती। श्वेतांबरोंका इसके विरुद्ध यह उत्तर था१५८. केवली होने पर भी [ मनुष्य ] भोजन करता है, सचीवर [ मनुष्य ] को भी निर्वाण मिलता है, और स्त्रीजन्ममें भी मुक्ति होती है - यह दे व सूरि का मत है। इस प्रकार भाषा और उत्तर लिख लेनेके अनंतर वादका स्थान और समय निर्णीत हुआ । उसमें सिद्ध राज के सभापतित्वमें, षड्दर्शन-प्रमाणको जाननेवाले सभ्यलोग जब उपस्थित हुए तो, तो सुखासन (पालकी) में बैठ कर, सिरपर श्वेत छत्र धारण किये हुए और जयडिंडिम बजाते हुए, वादी कुमुद चन्द्र ने सभा प्रवेश किया। उसके आगे बांशके सिरेपर, उसके प्राप्त किये हुए जयपत्र लटक रहे थे। सिद्ध राज ने उसके बैठनेके लिये सिंहासन दिलवाया । प्रभु श्री देव सूरि ने मुनीन्द्र श्री हे म चंद्र के साथ सभामें एक ही आसनको अलंकृत किया। फिर, वादी कुमु द.चं द्र ने, जो अवस्थासे वृद्ध था, श्री हेम चंद्र से- जिनकी शैशवावस्था कुछ ही समय पहले व्यतीत हुई थी; अर्थात् जो अब भी पूर्ण युवा नही हुए थे- कहा कि 'आपके द्वारा तक क्या पीत है ! अर्थात्-आपने तक (छांस) पी है?' इस पर श्री हेम चंद्र ने उससे कहा-'क्या वृद्धावस्थाके कारण तुम्हारी बुद्धि अस्थिर हो गई है ! जो ऐसा अनाप-सनाप बोल रहे हो! तक श्वेत होता है, पीत तो हल्दी होती है!' इस वाक्यसे नीचा मुँह हो कर उसने पूछा कि-' आप दोनोंमे वादी कौन है ?' श्री सूरिने उसका कुछ तिरस्कार करनेके इरादेसे [ अपनेको लक्ष्य कर लेकिन शब्दभेदके साथ ] कहा. ' यह आपका प्रतिवादी है ' । ऐसा कहने पर कुमुद चंद्र [ उसके मर्मको ठीक न समझ कर ] बोला- मुझ वृद्धका इस शिशुके साथ क्या वाद हो सकता है ?' उसकी यह बात सुन कर [आचार्य हे म चन्द्र ने कहा-] 'वृद्ध तो मैं हूँ और आप तो शिशु ही हैं-जो अब तक भी कंदोरा बान्धना नहीं जानते और वस्त्र नहीं पहनते ।' राजाके इन दोनोंकी इस प्रकारकी वितंडाका निषेध करने पर, परस्पर इस प्रकारकी प्रतिज्ञा निश्चित हुई-"पराजित होने पर श्वेतांबर तो दिगंबर हो जायंगे, और [ उसके विरुद्ध] दिगंबर देशत्याग करेंगे।" प्रतिज्ञा निश्चित हो जाने पर स्वदेशके कलंकसे डरनेवाले दे वा चार्य ने, सर्वानुवादका परिहार करके और देशानुवादका अनुसरण करके, कुमुद चंद्र से कहा कि-'पहले आप ही अपना पक्ष स्थापित करें ।' उनके ऐसा कहने पर कुमुद चंद्र ने राजाको पहले यह आशीर्वाद दिया १५९. हे राजन् ! आपके यशके स्मरण होने पर सूर्य खद्योतकी चमक जैसा प्रतीत होता है, चन्द्रमा पुराने मकड़ीके जालकी भाँति फीका जान पड़ता है और (हिमाच्छादित ) पर्वत मशकसे जान पड़ते हैं । आकाश उसमें भौरे जैसा हो जाती है और इसके बाद तो वाणा बन्द हो जाती है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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