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प्रकरण १०२-१०३ ]
सिद्धराजका पाटनमें सहस्रलिंग सरोवर बनवाना
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[९८ ] मार्गणोंने तुम्हारे शत्रुओंके पास लक्ष ( निशाना ) पा लिया है और तुम्हारे पास वे विलक्ष ( निशानेसे रहित ) हो कर रहे हैं । फिर भी हे सिद्ध राज ! तुम्हारा ' दाता 'पनका जो यश है वह ऊपर सिर उठाये रह रहा है-बढ़ता चला जाता है !
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इसके बाद, एक बार राजाने प्रथिलाचार्य जय मङ्गल सूरि से नगरवर्णन करनेको कहा । उन्होंने कहा[ ९९ ] मालूम होता है कि इस नगरीकी नागरिकाओंके चातुर्य से निर्जित हो कर सरस्वती देवी है सो satara - सी हो कर अपनी कच्छपी नामक वीणाको अपने बाहुसे उतार कर यहाँ पर छोड़ दी है और स्वयं पानी वहन करने लगी है । उसकी इस वीणाका यह सहस्रलिंग सरोवर तो मानों तुंबा है और कीर्ति स्तंभ मानों उसका उच्च दण्ड है ।
१०३) इसके बाद, जब श्रीपाल कवि की रची हुई सहस्र लिङ्ग सरोवर की प्रशस्ति, पट्टिका पर लिखी गई तो उसके संशोधन के लिये सर्व दर्शन के ( आचार्यों के ) बुलाये जाने पर श्री हे म चंद्राचार्य ने [ अपने प्रधान शिष्य ] राम चंद्र पण्डितको यह कह कर भेजा कि ' प्रशस्ति काव्य जो सभी विद्वानोंको अनुमत हो तो उसमें अपना कुछ भी पाण्डित्य मत दिखाना । ' फिर उन सब विद्वानोंने प्रशस्ति काव्यको शोधकी दृष्टिसे पढा और राजाके अनुरोधसे तथा श्रीपाल कवि के चतुरतापूर्ण पाण्डित्यसे प्रसन्न हो कर सारे काव्यको मान्य किया । उसमें भी उन सभीने निम्नलिखित काव्यकी विशेष प्रशंसा की
१४५. " कोशसे युक्त होते हुए भी तथा दल ( १ पत्ता, २ सेना ) से समृद्ध हो कर भी यह कमल अपने ही कण्टको समूहको उच्छिन्न करनेमें असमर्थ है और इसके अतिरिक्त पुंस्त्व भी नहीं धारण करता । ( कमल शब्द पुंल्लिंग नहीं है ) [ दूसरी ओर सिद्धराज का जो कृपाण है ] यह अकेला ही विना कोश( म्यान ) के भी भूतलको निष्कण्टक कर रहा है, ऐसा समझ कर लक्ष्मीने [ अपने उस निवासस्थान रूप ] कमलको छोड़ कर इसके कृपाणका आश्रय लिया है ।
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इस विषय में श्री सिद्धराज ने राम चन्द्र से खास पूछा तो उसने कहा कि 'यह कुछ सदोष है । ' उन सभी पंडितोंसे पूछे जाने पर [ उसने कहा कि ] ' इस काव्यमें सेनाका वाचक " दल शब्द और कमल शब्दका ' नित्यक्लीबत्व ' ये दो दोष चिन्तनीय हैं । तब उन सभी पंडितोंसे अनुरोध करके राजाने ' दल ' शब्दको तो सेनाके अर्थ में प्रमाणित कराया । किन्तु कमल शब्दका ' नित्यक्लीबत्व ' जो लिङ्गानुशासनसे असिद्ध है उसे कौन प्रमाणित कर सकता। इसलिये ' पुंस्त्वं च धत्ते न वा ' ( कभी पुंस्त्व धारण करता है, कभी नहीं ) इस प्रकार इस पदमें अक्षरभेद करवाया [ जिससे वह अशुद्धि दूर हो गई ] । उस समय राम चन्द्र को सिद्ध राजका दृष्टिदोष लगा और वह ज्यों ही वसतिमें प्रवेश करने लगा त्यों ही उसकी एक आँख नष्ट हो गई ।
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१ इस श्लोक में ' मार्गण ' और 'लक्ष' शब्द पर श्लेष है। 'मार्गण' का एक अर्थ है बाण और दूसरा अर्थ है मंगन=याचक | 'लक्ष' का एक अर्थ है लाख संख्या परिमित द्रव्य और दूसरा अर्थ है लक्ष्य = निशाना | मार्गणका अर्थ जब बाण ऐसा विवक्षित है तब उसके साथ लक्षका अर्थ निशाना लेना होगा; और जब मंगन = याचक ऐसा अर्थ अपेक्षित होगा तब लक्षका अर्थ लाख द्रव्य लेना होगा । सिद्धराज के मार्गण याने बाण विपक्ष याने शत्रुके पक्ष में लब्धलक्ष्य - निशाना प्राप्त करनेवाले - होते हैं, कभी व्यर्थ नहीं जाते; और वे ही बाण ( शत्रुके फेंके हुए ) सिद्ध राज के पक्ष में विलक्ष-लक्ष्यभ्रष्ट हो कर रह जाते हैं । इससे विपरीत, मार्गण याने याचक लोक हैं वे सिद्धराज के पास लब्धलक्ष याने लाखोंका द्रव्य प्राप्त करते हैं और शत्रु राजाओं के पास विलक्ष याने विगतलक्ष - विनाही प्राप्तिके रह जाते हैं ।
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