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प्रबन्धचिन्तामणि
[ तृतीय प्रकाश
[९२] मोक्षधर्मका विधान करनेकी इच्छासे वा सु देव ही अंशरूपसे अवतीर्ण हुए हैं, यह बात उनके विषयमें [ मुनियोंने ] कही है । उनके सौ पुत्र हुए जो सभी ब्रह्मपारंगत थे ।
[९३] उनमें सबसे ज्येष्ठ भरत थे जो नारायणके भक्त थे। जिनके नामसे यह अद्भुत ऐसा भारतवर्ष विख्यात हुआ ।
[९४] अर्हन्, शिव, भव, विष्णु, सिद्ध, बुध, परमात्मा, और पर ये सभी शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं।
[ ९५] मनीषियोंने जैन, बौद्ध, ब्राह्म, शैव, कापिल और नास्तिक इन छहोंको दर्शन कहा है । [९६] उसमें, इन सबके कुलके आदि बीज विमलवाहन हैं। मरुदेव और नाभि ये भरत खंड में कुल - सत्तम ( कुलश्रेष्ठ ) हुए ।
इत्यादि पुराण वाक्योंको सुना कर, विशेष विश्वासके लिए श्रीवृषभदेव के मन्दिरके भण्डारमेंसे, राजा भरत के नामसे अंकित, पाँच आदमियों द्वारा उठाये जाने लायक काँसेका बड़ा ताल ले आ कर राजाको ब्राह्मणोंने दिखाया । और इस प्रकार जैनधर्मका आदिधर्म होना उन्होंने सिद्ध किया । इसके बाद खेद से मन में खिन्न हो कर राजाने, एक वर्षके बाद, जैन मंदिरों पर पुनः ध्वजारोपण करवाये ।
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१०२) तदुपरान्त, पत्तन में पहुँचने पर राजाको जब सरोवर के खर्चका हिसाब बताया गया तो व्यवहारीके उस अपराधी पुत्रसे दण्डस्वरूप तीन लाख लिये जानेकी भी बात सुनी। वह तीन लाख उसके घर भिजवा दिया। इसके बाद वह व्यवहारी राजाके लिये हाथमें भेंट ले कर उसके समीप आया और बोला कि यह आपने क्या किया ? ' तब फिर उस कर्मस्थायके अधिकारी व्यवहारीसे राजाने कहा - ' जो व्यवहारी कोटीध्वज है वह ताडङ्कका चोरनेवाला कैसे हो सकता है ? तुमने इस धर्मस्थानके बनवाने में कुछ धर्मभाग मांगा था, लेकिन उसके न मिलने पर प्रपञ्च में चतुर - तथा मुँहसे मृग और भीतरसे व्याघ्रकी वृत्तिवाले, ऊपरसे खूब सरल और अंतरसे शठभाववाले मनुष्यकी तरह - तुम्हीने यह कर्म ( ताडङ्ककी चोरी ) करवाया है । ' [ इस प्रकारकी और भी कितनी ही बातें कह कर उसे खूब लज्जित किया । ]
१४३. जिस सरोवर के भीतर, शिवके मन्दिरके दीपक प्रतिबिंबित हो कर पातालमें सर्पोंके सिरपरके मणियोंकी भाँति शोभा पाते हैं ।
१४४. सिद्धराज के इस सरोवर के शोभित रहते, मेरा मन मानसरोवर में नहीं रमता, पम्पा सर उसक आनंद सम्पादन नहीं करता और अच्छोद सरोवर, जिसका जल बहुत ही अच्छा है, वह भी असार ( जान पड़ता ) है |
एक वार श्री सिद्धराज ने रामचन्द्र [ कवि ] से पूछा ' ग्रीष्म ऋतुमें दिन क्यों बड़े होते हैं ? ' रामचन्द्र ने कहा
[ ९७ ] हे श्री गिरिदुर्ग के मल्ल महाराज ! आपके दिग्विजयके उत्सवमें दौड़ते हुए वीरोंके घोडोंकी टाप्से पृथ्वीमण्डल खोद डाला गया है और हवासे उड़ी हुई उसकी धूलने जा कर आकाशगंगामें मिल कर उसे पंकस्थलीके रूपमें परिणत कर दिया है। इससे उसमें दूर्वा उग गई है और उसे सूर्यके घोड़े चरने लग गये हैं । इसी लिए यह दिन बडा हो गया है ।
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