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________________ [७३ प्रकरण ९९-१.१] सिद्धराजका पाटनमें सहस्रलिंग सरोवर बनवाना । सिद्धराजका पाटनमें सहस्रलिंग सरोवर बनवाना। १००) एक बार, सिद्ध रा ज ने मा ल व क म ण्ड ल के प्रति जाना चाहा तब किसी व्यवहारीने [जो उस काममें नियुक्त आधिकारी था ] स ह न लिंग सरोवरके कारखानेके लिये कुछ द्रव्य और भाग माँगा । राजा उसे कुछ भी दिये विना चला गया। कुछ दिनोंके बाद द्रव्याभावसे उस कामके चलनेमें देरी होते देख, उस व्यवहारी ( अधिकारी ) ने अपने लड़केसे किसी धनाढ्य पुरुषकी स्त्रीका ताडंक ( करन फूल ) चुरवा लिया, और फिर स्वयं उसके दण्डस्वरूप तीन लाख द्रव्य दे दिया। उससे वह काम पूरा हो गया । यह बात मा ल व म ण्ड ल में, वर्षाकालमें ठहरे हुए राजाने सुनी । सुन कर उसे जो आनन्द हुआ उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । इसके बाद वर्षाकालकी धनी वृष्टिसे जब सारी पृथ्वी एक समुद्रकी भाँति जलमय हो गई तो प्रधान पुरुषोंने राजाको बधाई देनेके लिये किसी म रु दे श वासीको भेजा । उसने [ जा कर ] राजाके सामने विस्तार पूर्वक वर्षाका स्वरूप कहना आरम्भ किया । इसी बीच, उसी समय आया हुआ कोई धूर्त गुजराती जल्दीसे बोल उठा-महाराज बधाई ! सहस्र लिंग सरोवर [ जलसे परिपूर्ण ] भर गया है । उसके ऐसा कहनेके साथ ही राजाने उस गुजरा ती को अपने शरीरके सारे आभरण दे दिये। वह म रु वा सी छींकेसे गिरे हुए मार्जार की भाँति देखता ही रह गया। - १०१) इसके बाद, वर्षा बीतते ही, राजा वहाँसे लौटा। [रास्तेमें ] न ग र म हा स्था न (बड न गर) में डेरा डाला और वहाँ बनवाये गए मंच-मंडपमें राजसभाको बैठक की गई । नगर के प्रासादोंमें ध्वज लगे हुए देख कर ब्राह्मणोंसे पूछा कि 'ये कौनसे प्रासाद हैं ?' उन्होंने जब वहाँके जिन और ब्रह्माके मंदिरोंका हाल बताया तो क्रुद्ध हो कर राजाने कहा कि ' जब मैंने गूर्जर म ड ल में, जैन मंदिरोंमें पताका लगानेका निषेध किया है, तो फिर आप लोगोंके इस नगरमें इन जैन मंदिरों पर ये पताकायें क्यों उड रहीं हैं ? ' उन्होंने कहा कि-' सुनिये, कृतयुगके प्रारंभमें श्रीमन्महादेवने इस म हा स्था न की स्थापना करते हुए श्री ऋषभनाथ और श्री ब्रह्मदेवके प्रासाद स्वयं बनवाये और उन पर ध्वजायें चढाई । सो इन दोनों प्रासादोंका सुकृतियों द्वारा उद्धार होते रहने पर ये चार युग बीत गये । दूसरी बात यह है कि पहले यह नगर शत्रुञ्ज य महागिरिकी उपत्यका भूमि था । क्यों कि नगर पुराण में भी कहा है कि १४०. कहा जाता है कि आदिकालमें इस जिनेश्वरके पर्वतकी मूलभूमिका विस्तार पचास योजन __ था ऊपरकी भूमिका विस्तार दश योजन था और ऊँचाई आठ योजन थी। कृतयुगमें आदिदेव श्री ऋषभ दे व के पुत्र भ र त नामक हुए । उन्हींके नामसे यह ‘भर त ख ण्ड' प्रसिद्ध हुआ । १४१. ना मि और [ उनकी पत्नी ] म रु दे वी के पुत्र श्री वृषभ ( ऋषभ देव ) हुए जिन्होंने समदृक् हो कर मुनियोग्य चर्याका आचरण किया। वे स्वच्छ, प्रशान्त अन्तःकरण, समदृक् और __ सुधी थे। ऋषिगण उनके अर्हत पदको मानते हैं। १४२. म रु दे वी के गर्भसे ना भि के (श्री ऋषभदेव ) पुत्र हुए जो अष्टम [ विष्णुके अवतार स्वरूप ] थे और सब आश्रमसे नमस्कृत थे। जिन्होंने धीरोंको अथवा वीरोंको [ मोक्षका ] मार्ग दिखाया । (यहां P प्रतिमें निम्नलिखित -अनुवादवाले-श्लोक अधिक पाये जाते हैं- ) [९१] स्वा यंभुव मनु के पुत्र प्रियव्र त नामक हुए; उनके पुत्र हुए अग्नी न्द्र, उनके नाभि और उनके पुत्र ऋषभ । Jain Education १९-२००l For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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