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________________ ७२] प्रबन्धचिन्तामणि तृतीय प्रकाश आज्ञासे अन्य व्याकरणोंको छोड़ कर लोग सब उसीका अध्ययन करने लगे। इस पर किसी मत्सरीने राजासे कहा कि ' इस व्याकरणमें आपके वंशका तो कोई उल्लेख ही नहीं है।' इससे राजाके मनमें क्रोध हुआ। यह बात किसी राजपुरुषसे जान कर श्री हे मा चार्य ने [ तत्क्षण ] बत्तीस श्लोक नूतन निर्माण करके बत्तीस ही सूत्रपादोंके अन्तमें उन्हें संलग्न कर दिया । प्रातःकाल जब राजसभामें व्याकरण बांचा गया तो १३८. हरिकी भाँति बलि बंधकर (=१ बलिको बाँधनेवाला, २ बलियोंको बंदी करनेवाला), शिवकी नॉई त्रिशक्तियुक्त, और ब्रह्माकी तरह कमलाश्रय (=१ कमलका आश्रय लेनेवाला, और २ कमला लक्ष्मीका आश्रय ) श्री मूल रा ज नृपकी जय हो। इत्यादि, चौ लु क्य वंश की स्तुतिवाले बत्तीस श्लोक बत्तीस सूत्रपादोंके अन्तमें आये सुन कर राजा मनमें प्रमुदित हुआ और उस व्याकरणका उसने खूब प्रचार कराया। इसी प्रकार श्री सिद्ध राज के दिग्विजय वर्णनमें [हे मा चार्य ने] द्याश्रय नामक [ काव्य ] ग्रंथ बनाया। [हे मा चार्य के बनाए इस सिद्ध है म व्या करण के विषयमें विद्वानोंने ऐसी उक्तियाँ कही हैं-] १३९. हे भाई! पाणि नि के प्रलापको बंद करो, का तंत्र का चीथड़ा मत फाडो शाक टा य न के कटु वचनको मत पढ़ो, और क्षुद्र चांद्र व्या क र ण से क्या मतलब है, भलाँ, और क ण्ठा भरण आदि व्याकरणोंसे अपने आपको कोई क्यों भुलायेगा, जब कि अर्थमधुर ऐसी श्री सिद्ध है म की उक्तियाँ सुननेको मिलती हैं। ९८) इसके बाद, श्री सिद्ध राज ने पत्तन में यशोवर्म राजा को, त्रिपुरुष प्रभृति सभी राजप्रासादों और स ह स लिंग प्रभृति धर्मस्थानोंको दिखा कर बताया कि-[ हमारे राज्यमें ] प्रतिवर्ष देवदायमें एक करोड़ द्रव्य व्यय किया जाता है !। और फिर उससे पूछा कि 'यह सुंदर है या असुंदर ?'। वह बोला-मैं तो अठारह लाख संख्यावाले (!) मा ल व दे श का राजा हूँ, तो भी मैं तुमसे पराजित कैसे हुआ ?। पर यह देश तो पहले ही महा काल देव को अर्पण कर दिया गया है और उसी देवद्रव्यका हम मा ल वी लोग उपभोग कर रहे हैं; और इसीलिये हमारा उदय और अस्त होता रहता है। आपके वंशवाले राजा भी इतना देवद्रव्य व्यय करनेमें असमर्थ हो कर उसका लोप करेंगे और फिर सारा देवदाय बंद हो जानेपर इसी प्रकार वे विपत्तिग्रस्त हो कर समूल नष्ट हो जायँगें । सिद्धराजका सिद्धपुरमें रुद्रमहालय बनवाना। ९९) इसके पश्चात्, एक बार श्री सिद्ध राज ने सिद्ध पुर में रुद्र म हा ल य का प्रासाद बनवाना चाहा । किसी [प्रसिद्ध ] स्थपति ( कारीगर ) को अपने पास रख कर, प्रासादके प्रारंभ होनेके समय उसकी कलासिकाको-जो उसने किसी साहुकारके यहाँ एक लाखमें बंधक रखी थी-छुड़ा कर उसको दिलवाई। वह बांसकी कमाचियोंकी बनी हुई थी। उसे देख कर राजाने पूछा कि क्या बात है ? इस पर उस स्थपतिने कहा कि मैंने महाराजकी उदारताकी परीक्षाके लिये ऐसा किया है। फिर उस द्रव्यको राजाकी अनिच्छा रहते हुए भी लौटा दिया। फिर क्रमानुसार २३ हाथ ऊँचा सर्वांगपूर्ण प्रासाद बनवाया । उस प्रासादमें अश्वपति, गजपति, नरपति प्रभृति बड़े बड़े राजाओंकी मूर्तियाँ बनवा कर रखी और उनके सामने हाथ जोड़े हुए अपनी मूर्ति भी बनवाई । [जिसका आशय यह है कि राजा] उनसे वर माँगता है कि देशका भङ्ग करते हुए भी इस प्रासादका कोई भंग न करें। उस मंदिर पर ध्वजारोपका उत्सव करते समय सभी जैन प्रासादोंकी पताकायें उतरवा दी गई । जैसे मा ल व देश के म हा का ल के मंदिरमें जब वैजयंती चढ़ाई जाती है तब जैन प्रासादोंमें ध्वजारोपण नहीं होने पाता। Jain Education in2 सह कलासिका नामका कारीगरका कोई ओजार है जिसका ठीक अर्थ समझमें नहीं आता। www.jainelibrary.org
SR No.003014
Book TitlePrabandh Chintamani
Original Sutra AuthorMerutungacharya
AuthorHajariprasad Tiwari
PublisherJinshasan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages192
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size15 MB
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