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प्रकरण ९६-९७ ] सिद्धराज और हेमचन्द्राचार्यका मिलन
[७१ सिद्धराज और हेमचन्द्राचार्यका मिलन । ९७) प्रति दिन सब दर्शन [ के आचार्यो ] को आशीर्वाद और दानके लिये बुलाये जाने पर, यथावसर बुलाये गये श्री हेम चन्द्र प्रभृति जैनाचार्य श्री सिद्ध राज के पास गये । राजाके दुकूल आदि दे कर उनका सत्कार करने पर, उन सभी अप्रतिम प्रतिभा पूर्ण पंडितों द्वारा दोनों तरह पुरस्कृत हो कर हे म चन्द्रा चार्य ने राजाको इस प्रकार आशीर्वाद दिया
१३६. हे कामधेनु ! तूं अपने गोमयके रससे भूमिका आसेचन कर, हे समुद्रो ! तुम अपने मोतियोंसे स्वस्तिक बनाओ, हे चन्द्र! तूं पूर्णकुंभ बन जा और हे दिग्गजो! तुम अपने सरल गुंडोंसे कल्पवृक्षके पत्ते तोड़ कर उनके तोरण सजाओ - क्यों कि संसारका विजय करके सिद्ध रा ज आ रहा है ।
इस प्रकार निष्प्रपंच ( सरल ) काव्यके विवेचन करने पर उनकी वचन-चातुरीसे चित्तमें चमत्कृत हो कर राजाने [ यथेष्ट ] प्रशंसा की। इस पर कुछ असहिष्णुओंके- अर्थात् ब्राह्मणोंके-यह कहने पर कि ' हमारे शास्त्रोंके - अर्थात् पाणिन्यादि व्याकरण ग्रंथोंके - अध्ययनके बल पर ही इन (जैनों) की विद्वत्ता है।' राजाने श्री हे म चंद्र आचार्यसे पूछा। [ उन्होंने कहा-] प्राचीन कालमें श्री जिनेन्द्र महा वीर ने अपने शैशव कालमें इन्द्रके सामने जिसकी व्याख्या की थी उसी जैनेन्द्र व्या क र ण को हम लोग पढ़ते हैं। उनके ऐसा कहने पर उस पिशुनने कहा कि इन पुरानी बातोंको तो छोड़ दो और हमारे समयके ही किसी तुम्हारे व्याकरण कर्ताका पता बता सकते हो तो बताओ । इस पर वे राजासे बोले कि यदि महाराज श्री सिद्ध राज सहायक हों तो, मैं ही स्वयं कुछ दिनोंमें ही पञ्चाङ्ग पूर्ण नूतन व्याकरण तैयार कर सकता हूँ। राजाने कहामैंने [ साहाय्य करना ] स्वीकार किया । आप अपने वचनका निर्वाह करें । ऐसा कह कर उसने सब सूरियोंको बिदा किया । वे भी अपने अपने स्थानको गये।
राजाने [ पहले ही यह एक ] प्रतिज्ञा कर ली थी कि य शो व मां के हाथमें विना म्यानकी छुरी देकर और उसको अपने पीछे बिठा कर हाथी पर सवार हो कर हम नगरमें प्रवेश करेंगे । राजाकी इस प्रतिज्ञाको सुन कर मुजा ल नामक मंत्री [ असंतुष्ट बना और उस ] ने प्रधान पद छोड़ दिया । राजाके बार बार कारण पूछने पर
१३७. राजा लोक चाहे सन्धि [ करना ] न जाने और विग्रह भी [ करना ] न जाने; पर यदि वे
[ मंत्रियोंका ] आख्यात ( कहा हुआ ) ही सुनते रहें तो इसीसे वे पण्डित हो सकते हैं ।
इस प्रकारका नीतिशास्त्रका उपदेश है। महाराजने स्वयं अपनी बुद्धिसे जो यह प्रतिज्ञा की है, भविष्य में वह बिल्कुल ही हितकर न होगी। राजाने प्रतिज्ञाभंग होनेके भयसे भीत हो कर कहा कि 'प्राणोंका त्याग करना अच्छा है । किन्तु विश्वविदित इस प्रतिज्ञाका नहीं।' इस पर मंत्रीने काठकी छुरी बना कर शालवृक्षके पाण्डुरंगके गोंदसे उसे परिमार्जित कर, पीछेके आसन पर बैठे हुए य शो वर्मा के हाथमें दी। उसके आगेके आसन पर राजा सिद्ध राज बैठा और खूब समारोहके साथ उसने अण हि ल्ल पुर में प्रवेश किया ।
प्रावेशिक मंगलकी धूमधाम समाप्त हो जाने पर राजाने व्याकरण वृत्तान्तकी याद दिलाई । इस पर बहुतसे देशोंके तज्ज्ञ पंडितोंके साथ सभी व्याकरणोंको नगरमें मंगवा कर श्री हे म चं द्रा चार्य ने श्री सिद्ध है म नामक नूतन पञ्चाङ्ग व्याकरण एक वर्षमें तैयार किया। इसका ग्रंथप्रमाण सवालाख श्लोक था। राजाके निजके बैठनेके हाथी पर उस पुस्तकको रख कर उसका जुलूस निकाला गया। उसके ऊपर श्वेतच्छत्र लगवाया गया और दो चामरग्राहिणियां चामर झलने लगीं। इस प्रकार उस ग्रंथकी महिमा करके उसे कोशागारमें रखा। फिर राजाकी
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